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(धर्मपाल धनखड़): जीवन और प्रकृति के प्रति संवेदनशील हमारा भारतीय समाज विकास की लय पर कदम-ताल करते हुए न जाने कब और कैसे 'बचाओ-बचाओ' चिल्लाते रहने वाले समाज में तब्दील हो गया। ये समाजशास्त्रियों के लिए गहन अध्ययन का विषय है। वास्तविकता ये है कि हम‌ मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्शों पर चलने का ढोंग करते-करते मंथरा के फालोवर होते चले गये। इसके साथ ही हमारी 'कथनी और करनी' बिल्कुल विपरीत हो गयी। इसीलिए हम जिसे खत्म करना चाहते हैं, उसके लिए जोर-शोर से 'बचाओ-बचाओ' का उद्घोष करने लगते है।

बरसों पहले वनों को बचाने के लिए खूब आवाज उठायी गयी, लेकिन हम उन्हें निरंतर खत्म करते जा रहे हैं। वन्य जीव-जंतुओं को बचाने का नारा दिया तो आज अनेक प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं और कुछ भविष्य में लुप्त हो जायेंगी। पहाड़ बचाने के स्लोगन के साथ हम निरंतर उन्हें काटते-तोड़ते जा रहे हैं। नदियों को पवित्र, पूज्य और जीवनदायिनी बताकर, उन्हें बचाने की मुहिम छेड़ी, तो ना केवल उनके रास्ते में विकास के रोड़े अटकाए, बल्कि मल-मूत्र डालकर उन्हें गंदा करने में जी-जान से जुटे हैं।

(आशु सक्सेना): केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के स्टार प्रचारक और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र दमोदर मोदी के लिए आज़ादी का 75वां साल काफी चुनौतियों भरा रहने वाला है। देश में अगले साल 2022 के दिसंबर तक सात राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इनमें पंजाब को छोड़कर बाकी सभी राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा हैं। जाहिर है कि पीएम मोदी इन राज्यों में अपने 'डबल इंजन' की सरकार के नारे पर एक बार फिर सत्ता में वापसी की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं।

दरअसल, पीएम मोदी अपने गृहराज्य गुजरात और अपने कर्म क्षेत्र वाले उत्तर प्रदेश में चुनाव अभियान शुरू कर चुके हैं। उत्तर प्रदेश में वह केंद्र की योजनाओं से लाभांवित लोगों से सीधे संवाद के कार्यक्रम प्रयोजित करवा रहें हैं। वहीं अपने गृहराज्य गुजरात में एक बार फिर धार्मिक माहौल गरमाकर सांप्रदायिक धुव्रीकरण की रणनीति को अंजाम दे रहे है। सवाल यह है कि गौधरा के बाद हुए विधानसभा चुनाव से लेकर पिछले विधानसभा चुनाव तक जब भाजपा के प्रदर्शन में लगातार गिरावट दर्ज की गयी है, ऐसे में क्या अगले विधानसभा चुनाव में पीएम मोदी का चमत्कार भाजपा की सत्ता में वापसी करवा पाएगा?

(आशु सक्सेना): देश इस बार 75वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है। आजादी के इन वर्षों में देश ने काफी कुछ सहा है। शुरुआत विभाजन की त्रासदी से हुई। देश ने पाकिस्तान और चीन से जंग लड़ी। आपातकाल लगा। साम्प्रदायिक दंगे हुए। बाढ़-सुनामी जैसी आपदाएं आईं और देश वर्तमान में कोरोना जैसी वैश्विक महामारी का सामना कर रहा है।

इन घटनाओं का देश पर कुछ न कुछ असर भी हुआ। लेकिन आज़ादी के बाद से देश लगातार प्रगति के पथ पर है। हांलाकि प्रगति में प्राकृतिक आपदा के साथ साथ सांप्रदायिक तनाव, राजनीतिक महत्वकांक्षा बाधक बनते रहे हैं।

आज़ादी के आंदोलन का नेतृत्व कर रही 'कांग्रेस' विभाजन नहीं चाहती थी। लेकिन आल इंडिया मुसलिम लीग और आरएसएस इस बात के पक्षधर थे कि सांप्रदायिक आधार पर देश का बंटवारा हो जाना चाहिए। ब्रिटिश शासन ने भारत के विभाजन के लिए इसी को सबसे बड़ा आधार बताया और देश का विभाजन हो गया। दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश भारत का अंत हुआ।

(आशु सक्सेना): संसद का मॉनसून सत्र पेगासस जासूसी, नये कृषि कानून के खिलाफ पिछले 9 महीने से दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन और आम लोगों से जुड़े मंहगाई के मुद्दे पर हंगामें की भेंट चढ़ गया। इसके बावजूद संसद का मॉनसून सत्र देश की राजनीति के लिहाज से काफी सार्थक माना जा सकता है।

वैश्विक महामारी के दौरान आयोजित संसद सत्र यूं तो 2020 के बजट सत्र से ही निधारित अवधि से पहले अनिश्चितकाल के लिए स्थगित किये जा चुके हैं। लेकिन 17 वीं लोकसभा का छठा सत्र इस मायने में ऐतिहासिक माना जाएगा कि विपक्ष के हंगामें के बावजूद सरकार संसद के दोनों सदनों से उन सभी विधेयकों को पारित करवाने में सफल रही, जो उसके लिए महत्वपूर्ण थे। यह बात दीगर है कि बिना चर्चा के विधेयक पारित करने पर विपक्ष ने सरकार पर लोकतंत्र की हत्या का आरोप लगाया है।

सत्रावसान से एक दिन पहले मोदी सरकार ने राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील मुद्दे पर ध्यान केंद्रीत किया और सप्ताह के पहले दिन सोमवार को सरकार ने सदन में हंगामें के बीच ओबीसी आरक्षण का मुद्दा उछाल दिया।

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