ताज़ा खबरें
दिल्ली:टूटा गर्मी का 14 साल पुराना रिकॉर्ड, लू का ऑरेंज अलर्ट जारी
स्वाति मालीवाल ने अपनी एक्स प्रोफाइल से हटाई केजरीवाल की फोटो

(आशु सक्सेना) 2019 के लोकसभा चुनाव में पहले से ज्यादा बहूमत हासिल करके दूसरी बार सत्ता पर काबिज होते ही मोदी सरकार ने भाजपा के विवादित चुनावी वादों को तेजी से अमलीजामा पहनाना शुरू कर दिया था। मई 2019 को सत्ता पर काबिज होने के बाद संसद सत्र के दौरान 5 अगस्त 2019 को मोदी सरकार ने पार्टी के सबसे पुराने चुनावी वादे जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 के अधिकांश प्रावधानों को निरस्त कर दिया और सूबे के राज्य के दर्जे को खत्म करते हुए दो केंद्रशासित प्रदेशों में उसे विभाजित कर दिया।

संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान मोदी सरकार ने हिंदू मुसलिम धुव्रीकरण को धार देने के इरादे से 11 दिसंबर 2019 को नागरिक संशोधन विधेयक (सीएए) को मंजूरी दे दी। इस बीच भाजपा के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे राम मंदिर के पक्ष में 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का पहला साल उपलब्धियों के लिहाज से पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने में सफल नज़र आ रहा था।

पीएम मोदी 2024 में फिर सत्ता हासिल करने की दिशा में राजनीति की शतरंज पर विपक्ष को घेरने के लिए तेजी से अपने सियासी मोहरे बढ़ा रहे थे। तीन तलाक, अनुच्छेद 370 और सीएए को मंजूरी के बाद 2020 के शुरू में देश का माहौल पूरी तरह सांप्रदायिक रंग में नज़र आने लगा था। सीएए विरोधी आंदोलन को सरकार एक खास धर्म के लोगों को कानून का विरोधी बताकर देश में सांप्रदायिक माहौल बनाने में पूरी तरह सफल नज़र आ रही थी। सरकारी और भाजपा के प्रवक्ता को मुसलमानों का आंदोलन बताकर इस संप्रदाय को हाशिए पर लाने की कोशिश कर रही थे। सीएए के विरोध में आंदोलन की अगुवाई लाजमी तौर पर मुसलिम संप्रदाय के लोग कर रहे थे। यह बात दीगर है कि दिल्ली के शाहीनबाग में सीएए विरोधी आंदोलन को पूरी तरह धर्म निरपेक्ष बनाने की कवायद की जा रही थी। आंदोलनरत लोग अपने प्रयास में सफल नज़र आ रहे थे। यह मामला जब सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, तब सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद शीर्ष अदालत ने सीएए के विरोध में आंदोलन को जायज बताया। सुप्रीम कोर्ट ने शाहिन बाग मामले में आंदोलनकारियों के अभिव्यक्ति की आज़ादी के मौलिक अधिकार के तहत प्रदर्शन को जायज ठहराया। विवाद अदालत में सिर्फ प्रदर्शन के स्थल को लेकर बाकी था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आंदोलनकारियों से इस मुद्दे पर वार्ता करके समाधान निकाला जाए। 

आपको याद दिला दें कि 2020 के शुरूआती दो महीने तो देश की राजनीति के लिए नया अध्याय लिख रहे थे। एक तरफ शाहीनबाग में मुसलमानों के पक्ष में सभी धर्मों के लोगों ने गोलबंद होना शुरू कर दिया था। पीएम मोदी के मिनी इंडिया ‘दिल्ली‘ के विधानसभा चुनाव में शाहीनबाग का मुद्दा छाया रहा। चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के नेताओं और केंद्रीय मंत्री के आपत्तिजनक नारों के वीडियों वायरल हुए। 2020 के फरवरी के महीने को याद करें। केंद्र सरकार जहां अहमदाबाद में होने वाले ‘नमस्ते ट्रम्प‘ कार्यक्रम की तैयारियों में व्यस्त थी। वहीं दूसरी तरफ ट्रम्प की भारत यात्रा से ठीक पहले देश की राजधानी दिल्ली में भंयकर सांप्रदायिक दंगा भड़क गया। इन दंगों में 53 लोगों की जान चली गई। सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष के बीच आरोप प्रत्यारोप का दौर चलता रहा।

उधर, साल के तीसरे महीने के शुरू में संसद के बजट सत्र के दूसरे हिस्से की कार्यवाही शुरू हो चुकी थी। बजट सत्र के दौरान मार्च 2020 में संसद में दिल्ली दंगों पर हंगामा हो रहा था। वहीं, केंद्र की मोदी सरकार शाहीनबाग आंदोलन को धुव्रीकरण के लिहाज से अपने पक्ष में मान रही थी। लेकिन शाहीनबाग वाले आंदोलन को बदनाम करने की तमाम कोशिशों के बावजूद आंदोलन लगातार शांतिपूर्ण ढंग से मजबूत हो रहा था। हिदूवादी संगठन का अगुवा बन कर एक नौजवान ने पुलिस की मौजूदगी में फायरिंग तक की। उस आंदोलन का अंत क्या होता यह कहना तो मुश्किल है। लेकिन फिलहाल यह तो कहा जा सकता है कि वैश्विक महामारी कोरोना ने मोदी सरकार को उस आंदोलन निपटाने में कामयाबी दिला दी। 

शाहीनबाग आंदोलन कोरोना काल में देश में लागू नियमों की भेंट चढ़ गया। 2020 की शुरूआत जहां सांप्रदायिक तनाव और दंगों से हुई थी, वहीं इस साल का अंत आम आदमी से जुड़े 'किसान आंदोलन' के साथ हुआ। वैश्विक महामारी के दौरान मोदी सरकार ने जून में तीन नये कृषि कानूनों से संबंधित अध्यादेश जारी कर दिया। इन अध्यादेशों के जारी होते ही पंजाब और हरियाणा में आंदोलन की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी।

मोदी सरकार ने 17 सितंबर 2020 को तीन नये कृषि विधेयकों को लोकसभा से पारित करवाया और 20 सितंबर को राज्यसभा ने कुछ विवादों के बीच तीनों बिलों पर अपनी मोहर लगा दी। संसद के इस फैसले के विरोध में पंजाब के किसानों ने अपनी लड़ाई सड़कों पर लड़ने का फैसला किया। आंदोलन के पहले चरण में किसानों ने पंजाब में रेल यातायात को ठप कर दिया और रेलवे लाइनों पर अपने ​आशियाने लगा दिये। आंदोलनरत किसानों की मांग थी कि तीनों कृषि कानूनों को रद्द किया जाए और एमएसपी की कानूनी गारंटी दी जाए।

पंजाब से गुजरने वाले रेल यातायात के पूरी तरह ठप हो जाने के बावजूद केंद्र की मोदी सरकार ने इस मामले को विशेष तबज्जो नहीं दी। जबकि किसान आंदोलन की सुगबुगहाट पूरे देश में सुनाई देने लगी थी। किसानों ने एलान किया कि वह संविधान के स्थापना दिवस 26 नवंबर को दिल्ली की ओर कूच करेंगे। किसानों की इस चेतावनी के जबाव में केंद्र सरकार ने इस आंदोलन को कूचने की रणनीति अपनाई। 

भाजपा शासित हरियाणा सरकार ने पंजाब के किसानों को दिल्ली जाने के रास्ते में रूकावटें डालने की रणनीति अपनाई। हरियाणा पुलिस और आंदोलनरत किसानों के बीच कई जगह झडपें हुई। दोनों ओर के लोग ज़ख्मी हुए। इस सबके बावजूद किसानों के जत्थे दिल्ली बार्डर तक आने में सफल हो गये। दिल्ली पुलिस ने आंदोलनकारी किसानों को दिल्ली से बाहर ही रोक रखा है। 

अब स्थिति यह है कि केंद्र सरकार दिल्ली के बुराड़ी में किसानों को आंदोलन के लिए जगह दे चुकी है। लेकिन किसान अपनी इस मांग पर अड़े हुए हैं कि उन्हें आंदोलन के लिए ऐतिहासिक रामलीला मैदान में धरने की अनुमति दी जाए। किसान पिछले दो महीने से ज्यादा समय से दिल्ली के बार्डर पर शांतिपूर्ण सत्याग्रह चला रहे हैं। केंद्र सरकार किसी भी ​कीमत पर कृषि कानूनों को रद्द करने को तैयार नहीं है। वहीं इस मुद्दे पर पिछले छह महीने से आंदोलनरत किसान अपनी कानूनों के रद्द करने की मांग पर अड़िग है।

इस बीच आंदोलनरत किसानों को गणतंत्र दिवस 26 जनवरी के दिन दिल्ली में ट्रेक्टर परेड निकालने की इजाजत मिल गई है। यह लड़ाई किसानों ने सुप्रीम कोर्ट के ट्रेक्टर परेड पर रोक ना लगाने के फैसले के बाद जीती। आज़ादी के 74वें साल में 26 जनवरी को देश एक ऐतिहासिक घटना को देखेगा, जब राजपथ पर सैन्य परेड़ होगी, तो वहीं दिल्ली की परिधि पर किसानों की ट्रेक्टर परेड़ देखने को मिलेगी।

किसान आंदोलन निश्चित ही भाजपा के स्टार पीएम मोदी के लिए एक सिर दर्द बनता जा रहा है। मोदी की कोशिश थी कि तीन तलाक, अनुच्छेद 370 और सीएए के साथ ही राममंदिर निर्माण को चुनाव प्रचार अभियान का हिस्सा बनाए और सांप्रदायिक ध्रव्रीकरण का फायदा 2024 के ​लोकसभा में एक बार फिर उठाया जाए। सरकार इस दिशा में वैश्विक महामारी कोरोना काल में भी काफी सक्रिय रही है। पीएम मोदी ने 5 अगस्त 2020 को राममंदिर निर्माण की शिलान्यास रख कर लोगों की धार्मिक भावनाओं को अपने पक्ष में लाने की कोशिश की है। मंदिर निर्माण का लक्ष्य 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले रखा गया है।

सवाल यह है कि क्या मोदी सरकार अपनी इस कोशिश में कामयाब होगी। जबकि दूसरी तरफ पहले सीएए विरोधी आंदोलन और अब किसान आंदोलन के चलते भाजपा की सांप्रदायिक माहौल बनाने की ​कोशिश के विपरित मोदी सरकार के खिलाफ सभी धर्मों में लोगों की गोलबंदी तेज हो गई है। किसान आंदोलन से इस गोलबंदी को पुख्ता आधार मिला है।

यह बात दिगर है कि सत्तारूढ़ भाजपा कोरोना काल में भी अपने सांप्रदायिक एजेंडे को अमलीजामा पहनाती नज़र आयी। दिलचस्प पहलू यह है कि वैश्विक महामारी कोरोना जनवरी में भारत मे प्रवेश कर चुका था। इसके बावजूद केंद्र की मोदी सरकार 20 मार्च 2020 को पहली बार चिंतित नज़र आयी थी, जब प्रधानमंत्री मोदी ने 22 मार्च को एक दिन के जनता कर्फ्यू की घोषणा की। दुनिया भर में कोरोना फैलने के करीब तीन महीने तक मोदी सरकार इस समस्या से पूरी तरह बेख़बर रही। तब तक यह आयातित वैश्विक महामारी का वायरस देशभर में पहुंच चुका था। इस महामारी के लिए सरकार ने तब्लीगी जमात को जिम्मेदार ठहराया। कई महीने तक तब्लीगी जमात के नाम पर देश में सांप्रदायिक तनाव पैदा करने की कोशिश होती रहीं। 

देश को कोरोना की वैक्सिन मिल गई है। यूं भी अब देश में कोरोना वायरस के मामलों में लगातार कमी आ रही है। कोरोना महामारी की जंग जीतने की बात करने वाली मोदी सरकार के सामने किसान आंदोलन की शक्ल में एक बड़ी चुनौती आ गई है। यूं तो शाहीनबाग प्रदर्शन भी गांधीवादी अंदाज में शांतिपूर्ण ढंग से चल रहा था। उस आंदोलन में भी देश की धर्म निरपेक्ष छवि उभरी थी। सभी धर्मों के लोगों ने एक मंच पर आना शुरू कर दिया था, लेकिन वह आंदोलन कोरोना के चलते रास्ते में ही अपना दम तोड़ गया था। हांलाकि सीएए के मुद्दे पर सत्तारूढ़ भाजपा अपने सांप्रदायिक एजेंडे़ को लागू करने में सफल हो रही थी।

लेकिन किसान आंदोलन ने सरकार की उस खुशी पर पानी फैरना शुरू कर दिया है। दिलचस्प पहलू यह है कि सीएए में मोदी सरकार ने जिन धर्मों के लोगों को राहत दी है। उन्हीं में से एक सिख धर्म के लोग किसान आंदोलन की अगुवाई कर रहे हैं। आंदोलन लगातार देशव्यापी होता जा रहा है। सभी धर्म के लोगों का आंदोलन को समर्थन मिल रहा है। किसानों ने मोदी सरकार के सभी प्रस्तावों को ठुकरा दिया है। किसान अपनी एक सूत्रीय मांग पर अड़िग है कि तीनों काले कानून वापस लो और एमएसपी की कानूनी गारंटी दो।

आज़ादी के 74 वें साल के गणतंत्र दिवस के दिन दिल्ली के राजपथ पर सैन्य परेड होगी, तो वहीं दिल्ली की आउटर रिंग रोड़ पर किसानों की ट्रेक्टर परेड़ होगी। निश्चित ही भारत के लोकतंत्र के इतिहास में यह एक नया अध्याय होगा। जब देश के किसान अपने हक की लड़ाई के गणतंत्र दिवस पर सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ दिल्ली में आंदोलनरत होंगे। इस मामले में सरकार के रूख से लग रहा है कि वह इस मामले को सुप्रीम कोर्ट पर छोड़कर अपना पल्ला झाड़ लेगी। सुप्रीम कोर्ट तीनों कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगा चुका है। सरकार ने किसानों को आखिरी प्रस्ताव यही दिया है कि वह डेढ़ साल तक कानूनों को स्थगित करने को तैयार है। 

लेकिन किसान आंदोलन ने पीएम मोदी की चुनावी गणित को डगमगा दिया है। भाजपा की गणित बहुत साफ है कि सांप्रदायिक विभाजन और राम मंदिर निर्माण 2024 के चुनाव में वापसी के लिए काफी हैं। लेकिन बीच मे किसान आंदोलन के आने से सरकार के खिलाफ गोलबंदी तेज हो गई है, जिसका खामियाजा भाजपा को ना सिर्फ विधानसभा चुनावों में भुगतना पडे़ेगा, बल्कि लोकसभा चुनाव तक इसके खिलाफ संघर्ष करना पडे़गा। हांलाकि राम मंदिर निर्माण की ख़बरों को सरकार और भाजपा विशेष महत्व दे रही है। 

नेताजी सुभाष चंद्र बोल की 125वी जयंती के मौके पर एक सरकारी आयोजन में पीएम मोदी की मौजूदगी में जय श्रीराम के नारे लगे। सूबे की मुख्यमंत्री ने इस घटना पर कार्यक्रम स्थल पर विरोध दर्ज किया और याद दिलाया कि सरकारी आयोजनों की क्या मर्यादा होती है। इस घटना पर पीएम मोदी ने तो कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है। लेकिन भाजपा के कई नेता और केंद्रिय मंत्री प्रकाश जावडेकर ने एक बयान में कहा कि 6 दिसंबर 1992 को एक पुरानी गलती को दुरूस्त किया गया था। 

मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा को लगातार झटका लगा है। फिलहाल, ​तीन तलाक, 370 और सीएए का भाजपा को चुनावी लाभ नहीं मिला है। भाजपा को महाराष्ट्र और झारखंड़ की सत्ता गवानी पड़ी है। महाराष्ट्र में भाजपा के 30 साल पुराने सहयोगी शिवसेना ने उससे नाता तोड़ लिया। वहीं दिल्ली में पीएम मोदी को लगातार दूसरी बार आम आदमी पार्टी से शिकस्त मिली है। वहीं हरियाणा की सत्ता में वह बहुमत का आंकड़ा हासिल करने में सफल नहीं हुई और अब वहां की नई क्षेत्रीय पार्टी जेजेपी और निर्दलीय विधायकों के बूते पर किसी तरह सत्ता में टिकी हुई है। किसान आंदोलन के चलते हरियाणा सरकार के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगने लगे हैं। जहां तक बिहार चुनाव का सवाल है, वहां भाजपा को सत्ता तो मिल गई है। लेकिन सरकार में शामिल घटक दलों के बीच विरोधाभासों से सरकार पर तलवार लटक रही है। जबकि चुनाव से पहले इस सूबे में माना जा रहा था कि वहां विपक्ष है ही नहीं। उस सूबे में डबल इंजन की सरकार बमुश्किल बहुमत के आंकड़े तक पहुंची है। ऐसे में किसान आंदोलन से सरकार के खिलाफ बन रहे माहौल ने भाजपा के स्टार प्रचारक पीएम मोदी की चुनौतियों का बढ़ना लाजमी है।

देखना यह होगा कि आगामी बंगाल विधानसभा चुनाव का नतीजा क्या रहता है। सूबे की राजनीतिक सरगर्मियों को देखते हुए कहा जा सकता है कि अगर इस सूबे में भाजपा सत्ता हासिल करने में सफल नहीं हुई। तो आगे आने वाले चुनावों खासकर उत्तर प्रदेश में भाजपा की ताकत घटना लगभग तय है। इसका असर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के सौवें साल के जश्न से ठीक एक साल पहले होने वाले 2024 के लोकसभा चुनाव में देखने को मिलेगा।

  • देश
  • प्रदेश
  • आलेख