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(आशु सक्सेना): संसद का मॉनसून सत्र पेगासस जासूसी, नये कृषि कानून के खिलाफ पिछले 9 महीने से दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन और आम लोगों से जुड़े मंहगाई के मुद्दे पर हंगामें की भेंट चढ़ गया। इसके बावजूद संसद का मॉनसून सत्र देश की राजनीति के लिहाज से काफी सार्थक माना जा सकता है।

वैश्विक महामारी के दौरान आयोजित संसद सत्र यूं तो 2020 के बजट सत्र से ही निधारित अवधि से पहले अनिश्चितकाल के लिए स्थगित किये जा चुके हैं। लेकिन 17 वीं लोकसभा का छठा सत्र इस मायने में ऐतिहासिक माना जाएगा कि विपक्ष के हंगामें के बावजूद सरकार संसद के दोनों सदनों से उन सभी विधेयकों को पारित करवाने में सफल रही, जो उसके लिए महत्वपूर्ण थे। यह बात दीगर है कि बिना चर्चा के विधेयक पारित करने पर विपक्ष ने सरकार पर लोकतंत्र की हत्या का आरोप लगाया है।

सत्रावसान से एक दिन पहले मोदी सरकार ने राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील मुद्दे पर ध्यान केंद्रीत किया और सप्ताह के पहले दिन सोमवार को सरकार ने सदन में हंगामें के बीच ओबीसी आरक्षण का मुद्दा उछाल दिया।

केंद्र सरकार ने सदन में पेगासस जासूसी के मुद्दे पर हंगामे के बीच तीन विधेयक पारित ​करवाने के बाद ओबीसी आरक्षण से संबंधित 127वां संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में पेश कर दिया, जिसे अगले दिन लोकसभा ने सर्वसम्मति से पारित कर दिया। बुधवार को राज्यसभा ने भी विधेयक को मंजूरी दे दी। सरकार इसके बाद बीमा विधेयक को भी पारित करवाना चाहती थी। लेकिन इस विधेयक को लेकर सदन में पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच हाथापायी की नौबत आने की ख़बर सामने आयी है। इसे लेकर पक्ष और प्रतिपक्ष एक दूसरे को दोषी ठहरा रहे हैं।

गौरतलब है कि पिछले करीब तीन दशक से देश की जातिगत राजनीति के मद्देनज़र पिछड़ों के आरक्षण का मुद्दा सबसे ज्यादा संवेदनशील रहा है। आपको याद दिला दें कि 1990 में जब केंद्र की वीपी सिंह सरकार को समर्थन देते हुए भाजपा अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक 'रथ यात्रा' की घोषणा की थी, तब केंद्र की सत्ता पर काबिज समाजवादी खेमें के नेताओं ने कमंडल के तोड़ में मंडल को तरजीह देने का फैसला किया था। यूं तो समाजवादी खेमें ने 'रोजगार का ​अधिकार' समेत कई अन्य मुद्दों को अमलीजामा पहनाने के सुझाव दिये थे। लेकिन उस वक्त के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को मंडल कमीशन की रिर्पोट लागू करने का फैसला ही भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति के जबाव में सबसे बड़ा राजनीतिक हथियार नज़र आया था।

वीपी सिंह सरकार ने 1983 से फाइलों में धूल चाट रही मंडल कमीशन की रिर्पोट को अगस्त 1990 में लागू करने की घोषणा की थी। इस घोषणा के साथ ही ख़बरों में राम जन्मभूमि आंदोलन की जगह मंड़ल कमीशन की रिर्पोट के खिलाफ देश भर में उभरे आंदोलन ने जगह ले ली थी। देशव्यापी इस आंदोलन की अगुवाई संवर्णों ने की। उस वक्त को याद करें, तो समूचे देश में जातिगत उन्माद साफ नज़र आने लगा था। दिल्ली विश्व विद्यालय परिसर में संवर्ण छात्रों ने 'क्रांति चौक' की स्थापना की। संवर्ण छात्रों खासकर दिल्ली के देशबंधु कालेज के छात्र राजीव गोस्वामी की आत्मदाह की कोशिश की ख़बरें सुर्खियां बनने लगी। लेकिन जैसे तमाम आंदोलन ध्वस्त होते रहे हैं, वैसे ही यह आंदोलन भी खत्म हो गया। लेकिन वीपी सिंह सरकार के इस फैसले ने भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ जातिगत उन्मादों को हवा देकर सांप्रदायिक आधार पर मत विभाजन पर काफी हद तक रोक लगा दी थी।

यह हक़ीकत वीपी सिंह सरकार के पतन के बाद 1991 में हुए लोकसभा चुनाव के नतीज़ों में साफ नज़र आयी थी। यह चुनाव अयोध्या में रामजन्म भूमि के लिए जारी आंदोलन और मंडल कमीशन की रिर्पोट के मुद्दे पर लड़ा गया। 1991 के इस लोकसभा चुनाव में भाजपा निसंदेह अपनी ताकत बढ़ाने में कामयाब रही। भाजपा, 1989 में जनतादल से चुनावी गठबंधन के साथ ही वामपंथियों के साथ पर्दे के पीछे हुए गठबंधन के तहत हासिल 88 सीट से अपने आंकड़े को 120 तक पहुॅंचाने में सफल रही थी। लेकिन लोकसभा में विपक्ष की आवाज़ राष्ट्रीय मोर्चा-वामपंथी मोर्चा (रामो-वामो) बनकर उभरा था। आज़ादी के बाद 1952 में पहली बार हुए लोकसभा चुनाव में भी प्रमुख विपक्ष की भूमिका वामपंथियों की मिली थी। रामो-वामो सांसदों की कुल संख्या भाजपा सांसदों से अधिक ​थी। याद रहे कि 1991 में कांग्रेस की अल्पमत सरकार को वाममोर्चा खासकर सीपीएम ने  बाहरी समर्थन दिया था। लिहाजा पहली बार लोकसभा में विपक्ष की कुर्सी पर भाजपा का कब्जा हुआ था। भाजपा ने नेता प्रतिपक्ष की ज़िम्मेदारी अटल बिहारी बाजपेयी को सौंपी थी।

दिलचस्प पहलू यह था कि भाजपा काशी, मथुरा और अयोध्या वाले सूबे उत्तर प्रदेश में जबरदस्त छलांग लगाने में सफल रही। भाजपा ने सूबे की 85 में से 51 सीटों पर कब्ज़ा किया।  लेकिन बगल के सूबे बिहार में रामरथ पर लगाम लग गयी। सूबे की 54 लोकसभा सीटों में से भाजपा बमुश्किल पांच सीट ही जीत सकी थी। जबकि 40 सीटों पर रामो-वामो का कब्जा था। इनमें जनतादल-31, भाकपा-8 और माकपा-एक सीट जीतने में सफल रही थी। वहीं, झारखंड़ मुक्ति मोर्चा के खाते में 6 सीट गयी थीं।

यूं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने करीब ढाई दशक से चली आ रही मंड़ल बनाम कमंडल की राजनीति को 2013 में उस वक्त विराम लगा दिया था, जब भाजपा ने उन्हें 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किया था। भाजपा की इस सार्वजनिक घोषणा के बाद जब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित किया, तब उन्होंने सबसे पहले उन्हें याद दिलाया कि वह पिछड़े समुदाय से यहां तक पहुंचे हैं। उनकी इस घोषणा का असर 2014 के लोकसभा चुनाव में साफ देखने को मिला। भाजपा ने संसदीय लोकतंत्र के ​इतिहास मेंं पहली बार पूर्ण बहुमत हासिल किया।
बहरहाल, पीएम मोदी ने अगले साल के शुरू में होने वाले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव से पहले फिर अपने उसी दाव को खेला है। इसका उन्हें आगामी विधानसभा चुनावों में कितना लाभ ​मिला, यह तो चुनाव नतीज़ों के बाद ही तय होगा। लेकिन एक बात साफ हो गयी की आगामी विधानसभा चुनावों में रामंदिर, 370, सीएए, लव जिहाद समेत अनेक सांप्रदायिक मुद्दों के साथ भाजपा ओबीसी आरक्षण को ​भी चुनावी मुद्दा बनाएगी।

वहीं ओबीसी आरक्षण विधेयक को संसद में सर्वसम्मति से पारित करवा कर विपक्ष ने भी साफ संकेत दिया है कि इस मुद्दे पर वह सत्तारूढ़ दल को बढ़त नहीं लेने देगा। यही वजह है कि कांग्रेस ने ओबीसी आरक्षण को समर्थन देने के साथ  ही अलग से पिछड़ी जातियों की जनगणना की मांग में समाजवादियों के सुर में सुर मिलाना शुरू कर दिया है। इस मुद्दे पर पिछड़ों को लेकर भाजपा पसोपेश में है। यह मुद्दा उसके गले की हड्डी बनता दिख रहा है। बिहार में उनके सहयोगी जनतादल यू नेता और सूबे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर ना सिर्फ जातिगत मतगणना कराने का अनुरोध किया है बल्कि उन्होंने प्रदेश मेंं विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनतादल समेत अन्य दलों के एक प्रतिनिधिमंड़ल की मुलाकात की गुहार भी लगायी है। हांलाकि पीएम ने अभी तक ऐसी मुलाकात को हरी झंडी नहीं दिखायी है। वहीं कभी बिहार विधानसभा में इस मुद्दे का समर्थन कर चुकी भाजपा इस वक्त इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए है।

उत्तर प्रदेश में विपक्षी समाजवादी पा​र्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव यह घोषणा कर चुके हैं कि सपा सरकार बनते ही सबसे पहले 'जातिगत मतगणना' के फैसले को अमलीजामा पहनाया जाएगा। वहीं बगल के सूबे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री से इस संबंध में कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलने के बाद यह घोषणा कर दी है कि वह राज्य स्तर पर जातिगत मतगणना कराने का काम करेंगे।
बहरहाल, इन हालात में यह कहना मुश्किल है कि तीन दशक बाद राष्ट्रीय क्षितिज पर छाया पिछड़ों के आरक्षण का मुद्दा किस 'राजनीतिक विचारधारा' के लिए ज्यादा फायदेमंद साबित होता है। लेकिन एक बात साफ है कि एक बार फिर यह मुद्दा सांप्रदायिक राजनीति पर भारी पड़ता नज़र आ रहा है।

मिसाल के तौर पर पिछले विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा ने उत्तर प्रदेश में जातिगत समीकरणों को अपने हक में करने के लिए कुर्मियों की पार्टी 'अपना दल' और राजभरों की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) समेत अन्य जाति आधारित क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन किया था। भाजपा ने पूर्ण बहुमत हासिल करने बाद गठबंधन धर्म का निर्वाह करते हुए सुभासपा अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर को प्रदेश में मंत्री बनाया था। इसके साथ ही अपनादल की अनुराधा पटेल केंद्र में मंत्री थी। लेकिन अब हालात यह है कि सुभासपा अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर मुख्यमंत्री योगी अदित्यनाथ के खिलाफ मुहिम छेड़े हुए हैं। सीएम योगी से मतभेद उजागर होने के बाद उन्होंने एनडीए से नाता तोड़ लिया था। पिछले दिनों उनकी भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के साथ् मुलाकात के ​बाद उनके फिर से भाजपा के पाले में जाने की ख़बरें सुर्खियां बनी थी। लेकिन राजभर ने इस मुद्दे पर यह बयान देकर कि सीएम योगी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का सवाल ही नहीं उठता है। भाजपा के साथ गठबंधन की किसी संभावना को पूरी तरह नकार दिया है। यह साफ है कि भाजपा अगला चुनाव सीएम योगी और पीएम मोदी के चेहरे पर 'डबल इंजन' की सरकार के नारे पर ही लड़ेगी।

वहीं केंद्र की सत्ता में हिस्सेदार 'अपनादल' को खुश करने के लिए पीएम मोदी ने पिछले सात साल में किये गये अपने सबसे बड़े मंत्रिमंड़ल विस्तार में अनुराधा पटेल को फिर से राज्यमंत्री की जिम्मेदारी सौंप दी है। यद्यपि 2019 में पुन्: सत्ता पर काबिज होने के बाद पीएम मोदी ने अपने मंत्रिमड़ल से अनुराधा पटेल को बाहर ​कर दिया था। अनुराधा पटेल ने ओबीसी आरक्षण पर लोकसभा में हुई बहस के दौरान 'जातिगत मतगणना' की मांग करके इस मुद्दे पर पीएम मोदी की समस्या बढ़ा दी है।

ओबीसी आरक्षण का मुद्दा क्या एकबार फिर पीएम मोदी की लोकप्रियता में हिजाफा करेगा, यह तो आगामी विधानसभा चुनाव खासकर यूपी के चुनाव के बाद तय हो जाएगा। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद हुए सभी विधानसभा चुनाव नतीज़ों से एक बात बहुत साफ हुई है कि मोदी-शाह की जोड़ी लगातार अपने प्रयासों में असफल रही है। लोकसभा के बाद सबसे पहले हुए महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों में भाजपा को नुकसान हुआ। महाराष्ट्र में जहां सत्ता गंवानी ​पड़ी, वहीं हरियाणा में बहुमत वाली सरकार को गठबंधन के लिए मजबूर होना पड़ा। उसके बाद छत्तीसगढ़ में भाजपा को सत्ता से हाथ धोना पड़ा।

दिल्ली विधानसभा चुनाव में पीएम मोदी के मिनी इंडिया में भाजपा को लगातार तीसरी बार हार का सामना करना पड़ा। इस बार गनीमत यह रही कि पूरी केंद्र सरकार के ज़ोर लगाने के बाद भाजपा आखिर इतनी सीट जीतने में कामयाब हो गयी कि विपक्ष के नेता की दावेदारी कर सके।

हाल ही में हुए बंगाल और असम चुनावों में भी भाजपा के रणनीतिकार मोदी-शाह को अपेक्षाकृत फायदा नहीं मिला है। बंगाल की जनता ने भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति को हराते हुए सूबे के उन ज़िलों में भाजपा को हराया है, जहां हिंदुओं की आबादी 80 फीसद के आसपास है। वहीं असम में भाजपा को इस बार अपने बूते पर बहुमत हासिल नहीं हो सका। यही वजह है कि सूबे में भाजपा को मुख्यमंत्री का चेहरा बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद सत्ता पर काबिज होने के मामले में भाजपा को लगातार समझौता करना पड़ रहा है।

पीएम मोदी के 2014 में सत्ता पर काबिज होने के बाद भाजपा ने जिन राज्यों में सरकार बनायी, वहां आरएसएस समर्थित चेहरे का राजतिलक हुआ था। लेकिन इस बार स्थिति इसके उलट नज़र आ रही है। असम में भाजपा को ऐसे चेहरे को बागड़ोर सौंपनी पड़ी, जिसका आरएसएस से कोई नाता नहीं है। हां सूबे में वह कांग्रेस की पहचान ज़रूर रहे हैं। वहीं कर्नाटक में भाजपा को पुराने समाजवादी नेता बासवराज बोम्मई को सत्ता सौंपनी पड़ी है। ऐसे में ओबीसी आरक्षण मुद्दे का पीएम मोदी राजनीतिक लाभ उठा पाएंगे, इस पर सवालिया निशान लग गया है।

 

 

 

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