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(आशु सक्सेना): 2020 को एक मनहूस साल के तौर पर सदियों तक याद किया जाएगा। इस साल की शुरूआत वैश्विक महामारी कोविड़ 19 के साथ संघर्ष से हुई। इस महामारी पर काबू पाने के लिए दुनिया भर के देशों ने लाॅकडाउन जैसे सख्त फैसले किये, जिसके चलते लोगों को अपने घर में सिमट कर रहने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस वैश्विक महामारी ने जहां दुनिया भर के देशों की अर्थ व्यवस्था को बूरी तरह प्रभावित किया है, वहीं दुनिया भर का राजनीतिक परिदृश्य भी बदलने लगा है। लाजमी है कि इन दोनों ही मोर्चो पर भारत में भी संघर्ष जारी है। 

आज़ाद भारत में बीते साल की शुरूआत देशभर में सांप्रदायिक तनाव के बीच नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ आंदोलन से हुई, वहीं इस मनहूस साल का अंत दिल्ली की सीमाओं पर 26 नवंबर से शुरू हुए किसान आंदोलन के साथ हुआ है। साल के आखिरी दिन मोदी सरकार ने किसानों की दो मांगे मान ली हैं। लेकिन किसान संगठनों की मुख्य मांग पर गतिरोध बरकरार है।

किसान आंदोलन की शुरूआत अगस्त में मोदी सरकार द्वारा पारित तीन कृषि काननों के खिलाफ सांकेतिक धरना प्रदर्शनों से हुई थी, जो कि साल अंत में एक देशव्यापी आंदोलन में तब्दील हो गई है। आज़ाद भारत के लिए बीते साल को आपदा में अवसर के तौर पर याद किया जाएगा। मोदी सरकार जहां बीते साल को आपदा में अवसर की तलाश की कामयाबी के जश्न के तौर पर मना रही है। वहीं देश के राजनैतिक परिदृश्य के लिहाज़ से भी इस साल को आपदा में अवसर के तौर पर देखा जाएगा। यह देश के लिए सुखद ही है कि सांप्रदायिक मुद्दे से शुरू हुए आंदोलनरत साल का अंत देश के अहम मुद्दों पर खड़े हुए आंदोलन के साथ हो रहा है। यह बात दीगर है कि केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा कोरोना महामारी के दौरान भी देश में सांप्रदायिक उन्माद भडकाए रखने में कोई कौर कसर नहीं छोड़ रही है। साल के अंत तक भाजपा शासित कई राज्य लव जिहाद के खिलाफ धर्म परिवर्तन को लेकर अध्यादेश जारी कर चुके हैं। 

आपको याद दिला दें कि पिछले साल का आगाज देश भर में जबरदस्त सांप्रदायिक तनाव के साथ हुआ था। मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल का पहला साल पूरा करने की ओर अग्रसर थी। मोदी सरकार ने संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान 11 दिसंबर 2019 को नागरिक संशोधन विधेयक 2019 (सीएए) को मंजूरी प्रदान कर दी थी। इस कानून के खिलाफ देश भर में आंदोलन शुरू हो गये। दिल्ली में शाहीनबाग पर आंदोलनकारियों का जमावड़ा लग गया था। इस शांतिपूर्ण आंदोलन की चर्चा देश विदेश में होने लगी थी। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुका था, शीर्ष अदालत ने अभिव्यक्ति की आज़ादी के मौलिक अधिकार के तहत शांति पूर्ण आंदोलन को मान्यता की थी। शीर्ष अदालत ने किसान आंदोलन को लेकर भी अपने रूख में कोई तब्दीली नहीं की है। देश के मौजूदा राजनैतिक परिदृश्य का असर ना केवल 2021 में होने वाले विधानसभा चुनावों पडे़गा बल्कि इसका असर 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव तक देखने को मिलेगा। 

आपको याद होगा आजाद भारत में 2020 की जनवरी में सीएए के खिलाफ शाहीनबाग का शांतिपूर्ण आंदोलन अपने शबाब पर पहुंच चुका था। इस बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मिनी इंड़िया यानि दिल्ली के विधानसभा चुनाव का प्रचार अभियान भी जोरों पर था। मोदी सरकार "नमस्ते ट्रम्प" कार्यक्रम में व्यस्त थी। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की भारत यात्रा से ठीक पहले दिल्ली में सीएए आंदोलन के दौरान फरवरी में सांप्रदायिक दंगे भडक उठे। जिसमें 53 लोग मारे गये।

यूं तो भारत में हिंदू मुसलिम संघर्ष का काफी पुराना इतिहास है। कहा जाता है, मुग़लों के शासन के दौरान यह संघर्ष शुरू हो गया था। लेकिन ब्रिटिश शासकों के खिलाफ दोनों ही संप्रदाय संयुक्त मोर्चा खोले हुए थे। ब्रिटिश भारत में इत्फाक से 100 साल पहले हिंदू मुसलिम सांप्रदायिक दंगों की शुरूआत 1920 में उस वक्त शुरू हुई थी, जब महात्मा गांधी ने खिलाफत आंदोलन से अपना समर्थन वापस लिया था। ब्रिटिश भारत में इसके बाद हिंदू और मुसलमानों के बीच नफरत बढती गई। जिसका अंत धार्मिक आधार पर देश के बंटवारे के साथ हुआ। 1947 में पाकिस्तान एक अलग इस्लामिक देश बन गया। जबकि भारत ने एक धर्म निरपेक्ष देश की आधारशिला रखी। नतीजतन, मुसलमानों की एक अच्छी खासी आबादी आज़ाद भारत में ही रही। 

ब्रिटिश भारत के दौरान 27 सितंबर 1925 को अस्तित्व में आया हिंदूवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस)  गांधी के नेतृत्व में चल रहे आज़ादी के आंदोलन के खिलाफ था। जिसे ब्रिटिश भारत में कभी प्रतिबंधित नहीं किया गया, लेकिन आज़ाद भारत में गांधी की हत्या के बाद इस हिंदूवादी संगठन को देश के पहले उप प्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 1948 में प्रतिबंधित कर दिया था। प्रतिबंधित करते हुए सरदार पटेल ने कहा था कि आरएसएस के लोगों को गांधी की हत्या के बाद खुशी में मिठाई बांटते हुए देखा गया। आरएसएस से यह प्रतिबंध 11 जुलाई 1949 को इस लिखित आश्वासन के बाद हटाया गया कि वह भारत के संविधान में आस्था रखती है और राष्ट्रध्वज तिरंगे को स्वीकारते हुए उसका सम्मान करेगा। साथ ही आरएसएस ने खुद को राजनीति से दूर रहने वाला सामाजिक संगठन भी घोषित किया।

बहरहाल आज़ाद भारत के 1952 में पहले संसदीय चुनाव के वक्त आरएसएस समर्थित भारतीय जनसंघ चुनाव मैदान में उतरा और उसने देश की 562 रियासतों में से जम्मू कश्मीर को चुनावी मुद्दा बनाया। नारा दिया एक देश दो विधान नहीं चलेगा।  यहां यह ज़िक्र करना उचित होगा कि मोदी सरकार ने दूसरी बार सत्ता पर काबिज होने के बाद 5 अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 370 को वापस लेने के अपने सबसे पुराने वादे को पूरा करने का काम किया था। दिसंबर में आहूत संसद सत्र में सीएए को मंजूरी के बाद मोदी सरकार बहुत तेजी से आरएसएस के हिंदूराष्ट्र के सपने को साकार करने की दिशा में अग्रसर थी। वहीं अब कोरोना महामारी से निपटने के तौर तरीके और किसान आंदोलन ने सत्तारूढ़ भाजपा की चिंता बढ़ा दी है। देश का राजनीतिक परिदृश्य सांप्रदायिक धुव्रीकरण के विपरित एक बार फिर मुद्दों पर आधारित गोलबंदी की ओर बढ़ता दिख रहा है। यूं तो बीते साल की शुरूआत में सीएए के खिलाफ शुरू हुआ आंदोलन भी दिल्ली के शाहिनबाग में देश के धर्म निरपेक्ष चरित्र को बचाने के लिए काफी मजबूत स्थिति में पहुंच गया था। वहां धार्मिक भाईचारे के तहत सभी धर्मों के लोग एक मंच पर नजर आने लगे थे। लेकिन कोरोना महामारी के चलते उसने किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले ही दम तोड़ दिया था। लेकिन साल के अंत में किसान आंदोलन के चलते सभी धर्मों के लोग एक बार फिर दिल्ली की सीमाओं एक मंच पर एकजुट नज़र आ रहे हैं। किसान आंदोलन ने दरअसल देश की राजनीति को एक नई दिशा दे दी है। लोग आम आदमी से जुडे़ दैनिक मुद्दों पर गोलबंद होते नज़र आ रहे हैं, जो निश्चित ही भाजपा के लिए चिंता की बात है।

बीते साल हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 370 और सीएए को चुनावी मुद्दा बनाया है। लेकिन इसका ज्यादा फायदा उसे मिलता नज़र नहीं आ रहा है। प्रधानमंत्री मोदी को अपने मिनी इंड़िया यानि दिल्ली में लगातार दूसरी बार शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा, वहीं झारखंड़ में उसे सत्ता गंवानी पड़ी है। जहां तक बिहार की बात है, वहां भाजपा सत्ता पर काबिज होने में तो सफल रही है। लेकिन जनादेश को 370 और सीएए के पक्ष में नहीं कहा जा सकता। भाजपा जातिगत और सांप्रदायिक जोड़तोड़ से  गठबंधन के दम पर बमुश्किल बहुमत के आंकड़े तक पहुंच सकी है। जबकि वैश्विक महामारी के दौरान भी उसने सांप्रदायिक उन्माद भड़काने की अपनी कोई कोशिश बाकी नहीं छोड़ी है। 

आपको याद दिला दें कि वैश्विक महामारी कोरोना ने देश मे जनवरी में दस्तक दे दी थी। लेकिन मोदी सरकार उस वक्त नमस्ते टंप और दिल्ली विधानसभा चुनाव में व्यस्त थी। मार्च के महीने में मोदी सरकार मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार को अपदस्त करने में व्यस्त नज़र आ रही थी। 23 मार्च को कांग्रेस सरकार के पतन के बाद मोदी सरकार ने कोरोना से निपटना शुरू किया और 25 मार्च से पूरे देश में लाॅकडाउन लागू कर दिया। इस महामारी के दौर में भी भाजपा का सांप्रदायिक एजेंड़ा अपना काम करता रहा, शुरू में महामारी फैलने के लिए तबलीगी जमात को दोषी ठहराया जाता रहा। देशभर में मुसलमानों के खिलाफ इस दौरान माहौल गर्म किया गया। साल के अंतं में लव जिहाद का मुद्दा गरमाया हुआ है। हाल ही में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 370, कश्मीर के आतंकवादी, सीएए और पाकिस्तान को चुनावी मुद्दा बनाया। लेकिन यह मुद्दे चुनाव में लाभदायक साबित नहीं हुए। जातिगत समीकरणों के लिहाज से विपक्ष को कमजोर माना जा रहा था। इसके बावजूद सत्तारूढ़ एनडीए बमुश्किल बहुमत के आंकड़े तक पहुंचा है। चुनाव घोषणा के बाद एनडीए के पाले में आए अगर दो घटकों को बाहर कर दिया जाए, तो पीएम मोदी के नाम पर बनी डबल इंजन की एनडीए सरकार अल्पमत में आ जाएगी।

देश के राजनीतिक परिदृश्य के लिहाज से गुजरे साल का अंत सुखद कहा जाएगा। केंद्र सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर डटे आंदोलित किसान जाति और धार्मिक भेदभाव को भूलकर आम आदमी से जुड़े मुद्दों पर एक बैनर के नीचे गोलबंद नज़र आ रहे हैं। सांप्रदायिक उन्मादों से इतर रोजी रोटी के अहम मुद्दों के लिए गोलबंदी शुरू हुई है। 

देश में बदले हुए राजनीतिक माहौल का इस साल होने वाले विधानसभा चुनावों पर क्या असर होगा, इसकी फिलहाल भविष्यवाणी करना संभव नहीं है। लेकिन एक बात साफ है कि पश्चिम बंगाल, असम समेत अन्य सभी राज्यों के चुनाव नतीज़ों से पीएम मोदी की लोकप्रियता का आंकलन होगा, जिसका असर 2024 के लोकसभा चुनाव पर पड़ना लाजमी है। 

 

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