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(सुरेन्द्र सुकुमार): असल्लाहमालेकुम दोस्तो ! अब तो हमारा यह हाल हो गया था कि जब भी हम कानपुर नितेश्वर आश्रम जाते तो हुज़ूर साहब की ख़ानक़ाह ज़रूर जाते। इस बार भी ऐसा ही हुआ जैसे ही हम पहुंचे उन्होंने गर्मजोशी से इस्तक़बाल किया, ‘‘आइए, मियाँ सुकुमार साहब... तशरीफ़ रखिए... लीजिए पान नोश फरमाइए।‘‘ हमने पान लिया और झुक कर सलाम किया। फिर वो बोले, ‘‘मियाँ कुछ नया कहा है क्या?‘‘ हमने कहा, जी हुज़ूर साहब एक ग़ज़ल हुई है रूहानी सी। तो बोले, ष्‘अरे वाह, तो फिर देर किस बात की... सुनाइए... और हाँ तरन्नुम से सुनाइए।‘ हमने कहा कि हुज़ूर साहब हमारा तरन्नुम बहुत अच्छा नहीं है। तो बोले, ‘तो क्या हुआ? कौन सा मुशायरे में सुना रहे हैं। हमने सुनाना शुरू किया...
पियक्कड़ों की यह महफ़िल है यहाँ सम्भल के आना जी,
जो भी आए सुनो यहाँ पर हो जाए मस्ताना जी।
मैं तुलसी का भक्त हूँ प्यारे कबिरा का दीवाना जी,
एक जगह धूनी है रमाई कहीं न आनाजाना जी।
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(सुरेन्द्र सुकुमार): असल्लाहमालेकुम दोस्तो ! एक दिन हम फिर रात को एक बजे ख़ानक़ाह पहुंचे। हुज़ूर साहब यथावत बैठे थे हमारे पहुँचते ही मुस्कुराए, "आइए ज़नाब सुकुमार साहब, आश्रम से ही आ रहे होंगे?" हमने कहा, जी हज़ूर साहब। हमने पूछा कि हुज़ूर साहब सूफ़ी मत किस तरह इस्लाम से मुख़्तलिफ़ है? तो बोले, "सूफ़ी पंथ यों तो इस्लाम की ही एक धारा है, पर हम पाखण्ड को तवज़्ज़ो नहीं देते हैं। यों तो सूफ़ी सिया सुन्नी दोनों ही होते हैं, पर हम लोग पाखण्ड में एतबार नहीं रखते हैं और शरीयत को नहीं मानते हैं। इसीलिए कट्टर इस्लामी हमको मुस्लिम विरोधी मानते हैं।"
"मोहम्मद साहब ने क़ुरान शरीफ़ में एक आयत में फ़रमाया है कि उनसे सीखो, जो तुमसे बेहतर जानते हैं। अब मुस्लिमों में क्या होता है कि मदरसों में क़ुरान शरीफ़ हिब्ज़ करा दी जाती है, उसके मानी से उनका कोई ताल्लुक नहीं होता है। वो हाफ़िज़ हो जाते हैं और सूफ़ियों में उस्ताद से क़ुरान शरीफ़ सुनी जाती है। फिर अकेले में उसका मनन किया जाता है और कुछ समझ में नहीं आता है, तो उस्ताद से मशबरा करते हैं, फिर मनन करते हैं। इस तरह से क़ुरान शरीफ़ के मानी खुल जाते हैं।"
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(सुरेन्द्र सुकुमार): असल्लाहमालेकुम दोस्तो ! अब तो हमारा यह आलम हो गया था कि जब भी हम कानपुर श्री सूरज मुनि महाराज जी के नितेश्वर आश्रम जाते, रात को एक बजे आश्रम की जीप से हुज़ूर साहब की ख़ानक़ाह ज़रूर जाते। वहाँ तो नशिस्त जमी रहती थी, हमें देखते ही मुस्कुरा कर हमारा इस्तक़बाल करते, ‘‘आइए ज़नाब सुकुमार जी तशरीफ़ रखिए, महाराज जी के पास से आ रहे होंगे, कैसे हैं महाराज जी?‘‘ हम बैठ जाते और कहते महाराज जी ठीक हैं। हमने कहा कि महाराज जी भी आपके बारे में पूछते रहते हैं... आप लोग एक दूसरे को नाम से जानते हैं... पर कभी मिले नहीं हैं। एक बार आप मिल लीजिए। तो बोले, "खुद से तो रोज़ ही मिलते हैं, हम ही तो महाराज जी हैं।" कह कर मुस्कुरा दिए, हम समझ गए थे कि वो क्या कह रहे हैं।
एक दिन यही बात हमने महाराज जी से कही थी, तो वो भी बोले थे, "लला हमईं तो हुज़ूर साहब हैं।" बात ख़त्म हो गई थी। चाय पीने के बाद पान खाया फिर बोले, "कुछ नया कहा है क्या?" हमने कहा हुज़ूर साहब अब तो लिखने-पढ़ने से ज्यादा इबादत में मज़ा आता है।
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(सुरेन्द्र सुकुमार): असल्लाहमालेकुम दोस्तो ! हुज़ूर साहब से मिल कर हमें बहुत ही अच्छा लगा। उन दिनों हम नितेश्वर आश्रम में ही थे। एक दिन हम महाराज जी की जीप से रात को एक बजे हुज़ूर साहब की ख़ानक़ाह पहुंचे। हम उस समय महाराज जी के पास ही बैठे थे, जैसे ही हमने हुज़ूर साहब के पास जाकर चरण स्पर्श किए, तो बोले ‘किबला किसी फ़क़ीर के प्रयास से आ रहे हैं खुशबू आ रही है।‘ हमने कहा, जी हुज़ूर साहब सूरज मुनि महाराज जी के पास से आ रहे हैं।‘ वही तो ‘आप तो नाद भी सुन रहे हैं।‘ हमने कहा, जी ‘कबसे सुन रहे हैं।‘ हमने कहा कि एक दिन ध्यान में थे तभी प्रकाश देखा तभी से सुन रहे हैं। तो बोले, ‘निहायत ही दुरुस्त हाल है, ये तो कभी कभी किसी को सुनाई देता है। सब अल्लाह की रहम है।
उस दिन भी कई शायर वहाँ थे चाय और पान के दौर मुतवातिर चल रहे थे। फिर उन्होंने एक शायर की ओर मुख़ातिब होकर कहा, ‘आज आप सुनाइए क्या कुछ नया कहा है।‘ उन्होंने ग़ज़ल सुनाई, तो वो दाद देते रहे फिर बोले, ‘ज़नाब ग़ज़ल तो अच्छी है पर एक शेर में सक्ता आ रहा है, ये अल्फ़ाज़ बदल कर ये कर लीजिए दुरुस्त हो जाएगी।
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