(सुरेन्द्र सुकुमार) प्रातः वंदन मित्रो ! कानपुर के हमारे मित्र केजी तिवारी ही हमें हुज़ूर साहब के पास ले गए थे। ज़नाब शाह मंज़ूर आलम साहब को उनके मुरीद हुज़ूर साहब ही कहते थे। उनकी ख़ानक़ाह हीर पैलैस सिनेमा हॉल के पीछे थी। वो रात को एक बजे से सुबह चार बजे तक अपने मुरीदों के साथ बैठते थे। जब हम पहली बार उनसे मिलने गए, तो केजी तिवारी ने हमारा परिचय कराया। उन्होंने बैठने का इशारा किया, हम यह देख कर दंग रह गए कि वहाँ अधिकतर मुरीद कानपुर के शायर और कवि थे, उनमें से कुछ तो हमारे मित्र भी थे।
हुज़ूर साहब सफ़ेद लंबा सा कुर्ता अलीगढ़ कट पाजामा पहने थे और एक ऊनी वस्त्र के आसन पर बैठे हुए थे। हमसे पूछा कि ‘ क्या आप कुछ लिखते पढ़ते भी हैं।‘ इतनी विनम्र आवाज़ तो हमने अपने जीवन में कभी भी नहीं सुनी थी। हमने कहा जी। तो पूछा कि ‘क्या लिखते हैं‘? हमने कहा सबकुछ लिखते हैं। कहानी, कविता, ग़ज़ल, गीत, बगहैरा... तो हल्के से मुसकुराए बोले, ‘बहुत अच्छे ‘।
वहाँ कुछ-कुछ देर बाद उनका ख़ादिम थोड़ी-थोड़ी चाय ले आता था। फिर हुज़ूर साहब सामने रखे पानदान में से छोटे-छोटे टुकड़े पान के बना कर अपने हाथों से पेश करते थे। हमसे बोले, ‘सुनाइए कुछ‘? उन दिनों हमने कृष्ण भक्ति के छंद लिखे थे, तो वो ही डूब कर सुनाने लगे... सुनते समय उन्होंने अपनी आँखें बंद कर लीं थीं.... हमारे सुनाने के बाद बोले, ‘माशाअल्लाह आपने तो कमाल ही कर दिया... इतने जज़्बात में भर के सुनाया आपने कि हम भी अपने महबूब में डूब गए।
चार बजे नशिस्त ख़त्म हुई। हुज़ूर साहब उठ कर खड़े हुए तो हमने देखा कि वो इकहरे वदन साढे़ छ फिट लंबे एक गोरे रंग के खूबसूरत व्यक्ति थे। हमने चलते समय उनके चरण स्पर्श किए... तो उन्होंने गले से लगा लिया... और बोले, आते रहिएगा...।
आज इतना ही, सबको नमन,
शेष अगली किस्त में जारी रहेगी।
नोटः क्रांतिकारी, लेखक, कवि, शायर और आध्यात्मिक व्यक्तित्व सुरेंद्र सुकुमार जी, 1970 के दशक में वामपंथी विचारधारा से प्रभावित थे। लेकिन ओशो समेत अन्य कई संतों की संगत में आकर आध्यात्म की ओर आकर्षित हुए और ध्यान साधना का मार्ग अख्तियार किया। उनकी आध्यात्मिक यात्रा से जुड़े संस्मरण "जनादेश" आप पाठकों के लिए पेश कर रहा है।