(सुरेन्द्र सुकुमार): असल्लाहमालेकुम दोस्तो ! एक दिन हम फिर रात को एक बजे ख़ानक़ाह पहुंचे। हुज़ूर साहब यथावत बैठे थे हमारे पहुँचते ही मुस्कुराए, "आइए ज़नाब सुकुमार साहब, आश्रम से ही आ रहे होंगे?" हमने कहा, जी हज़ूर साहब। हमने पूछा कि हुज़ूर साहब सूफ़ी मत किस तरह इस्लाम से मुख़्तलिफ़ है? तो बोले, "सूफ़ी पंथ यों तो इस्लाम की ही एक धारा है, पर हम पाखण्ड को तवज़्ज़ो नहीं देते हैं। यों तो सूफ़ी सिया सुन्नी दोनों ही होते हैं, पर हम लोग पाखण्ड में एतबार नहीं रखते हैं और शरीयत को नहीं मानते हैं। इसीलिए कट्टर इस्लामी हमको मुस्लिम विरोधी मानते हैं।"
"मोहम्मद साहब ने क़ुरान शरीफ़ में एक आयत में फ़रमाया है कि उनसे सीखो, जो तुमसे बेहतर जानते हैं। अब मुस्लिमों में क्या होता है कि मदरसों में क़ुरान शरीफ़ हिब्ज़ करा दी जाती है, उसके मानी से उनका कोई ताल्लुक नहीं होता है। वो हाफ़िज़ हो जाते हैं और सूफ़ियों में उस्ताद से क़ुरान शरीफ़ सुनी जाती है। फिर अकेले में उसका मनन किया जाता है और कुछ समझ में नहीं आता है, तो उस्ताद से मशबरा करते हैं, फिर मनन करते हैं। इस तरह से क़ुरान शरीफ़ के मानी खुल जाते हैं।"
हमने कहा हुज़ूर साहब सनातन धर्म में भी वेदांती सन्यासियों में श्रवण मनन और निदिध्यासन पर बहुत ही जोर दिया गया है। सद्गुरु के चरणों में बैठ कर उपनिषदों का श्रवण फिर अकेले में मनन और निदिध्यासन पर सारा जोर दिया जाता है। तो बोले, "यही सूफ़ियों में है, एक तरह से सूफ़ीवाद हिंदुओं से बहुत मिलता जुलता है। हम भी रूह को अल्लाह ताला से मिलाने की बात करते हैं और सनातन संस्कृति में भी आत्मा को परमात्मा से मिलाने की बात करते हैं। इसलिए भी ज्यादातर हिंदू भाई बहन सूफ़ियों की दरगाह पर चादर चढ़ाने और मन्नत मांगने जाते हैं।
हम लोग अल्लाह ताला को अपना महबूब मानते हैं और ख़ुद को उनकी महबूबा। पश्चिम बंगाल में एक सम्प्रदाय है, सखी सम्प्रदाय उसमें पुरुष महिलाओं के कपड़े पहनती हैं, सोलह श्रंगार करती हैं, मांग भरती हैं, बिछिया पहनती हैं और श्री कृष्ण भगवान की इबादत करती हैं। उनका यह मानना है कि संसार में केवल एक ही पुरुष है और वो हैं। श्री कृष्ण भगवान बाक़ी तो सब उनकी सखियाँ हैं। हम लोगों का भी यही मानना है कि अल्लाह ताला के अलावा और कोई मर्द नहीं है।
आज इतना ही, सबको नमन (शेष कल)
नोटः क्रांतिकारी, लेखक, कवि, शायर और आध्यात्मिक व्यक्तित्व सुरेंद्र सुकुमार जी, 1970 के दशक में वामपंथी विचारधारा से प्रभावित थे। लेकिन ओशो समेत अन्य कई संतों की संगत में आकर आध्यात्म की ओर आकर्षित हुए और ध्यान साधना का मार्ग अख्तियार किया। उनकी आध्यात्मिक यात्रा से जुड़े संस्मरण "जनादेश" आप पाठकों के लिए पेश कर रहा है।