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नई दिल्ली (आशु सक्सेना): गुजरात के 19 जिलों की 89 विधानसभा सीटों पर गुरुवार को मतदान हुआ। पहले चरण में 63 फीसदी से ज्यादा मतदान हुआ। 2017 के मुकाबले इसमें करीब चार फीसदी की गिरावट दर्ज हुई है। 2017 में इन सीटों पर 67.20 प्रतिशत लोगों ने वोट डाला था। सत्तारूढ़ भाजपा, कांग्रेस, आप समेत अन्य राजनीतिक दलों के कुल 788 प्रत्याशियों की किस्मत का फैसला ईवीएम में कैद हो चुका है। अब आठ दिसंबर को इसके नतीजे घोषित होंगे।

ऐसे में सवाल यही है कि मतदान घटने के मायने क्या हैं? मतदान घटने से किसे फायदा होगा? 2017 में जिन सीटों पर मतदान घटा था, वहां भाजपा हारी थी और कांग्रेस को जीत मिली थी। खासकर पाटीदार और आदिवासी बहुल सीटों पर भाजपा को भारी खामियाजा भुगतना पड़ा था। अब सवाल यह है कि इस बार आम आदमी पार्टी की मौजूदगी का क्या भाजपा को फायदा होगा? पहले चरण में कुल 63.14% लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। पिछली बार 2017 में इन्ही विधानसभा सीटों पर कुल 67.20% लोगों ने वोट डाला था।

इस बार सबसे ज्यादा तापी जिले की निजार सीट पर 78.24% और सबसे कम कच्छ जिले की गांधीधाम सीट पर 39.89% लोगों ने वोट डाला।

जिन 89 विधानसभा सीटों पर पहले चरण का चुनाव हुआ, 2017 में उनमें से 48 पर भाजपा और 38 सीटों पर कांग्रेस को जीत मिली थी। जिन सीटों पर पिछली बार भाजपा को जीत मिली थी, उन पर इस बार तीन से आठ प्रतिशत तक वोटिंग में कमी देखने को मिली है। औसतन 60 प्रतिशत वोट पड़े हैं। वहीं, कांग्रेस के कब्जे वाली सीटों पर दो से 6.50 प्रतिशत तक वोटिंग में कमी देखने को मिली है। यहां औसतन 62 फीसदी वोटिंग हुई है।

सौराष्ट्र और दक्षिण गुजरात के ओबीसी बहुल इलाकों में भी कम वोटिंग देखने को मिली है। इनमें 28 सीटों पर कोली, अहीर, मेर, करडिया व अन्य ओबीसी की जातियां अधिक हैं। इनके वोटर्स की संख्या निर्णायक है। इन सीटों पर 2017 के मुकाबले करीब छह फीसदी तक कमी देखने को मिली है।

अगर पाटीदार और आदिवासी सीटों की बात करें तो यहां भी वोटिंग में भारी कमी देखने को मिली है। पाटीदार बहुल 23 सीटों पर इस बार करीब छह से आठ फीसदी कम लोगों ने वोट डाला है। 2012 में जहां, 69.36 प्रतिशत वोट पड़े थे, वहीं 2017 में 64.43% वोटिंग हुई। इस बार इन 23 सीटों पर 58.59 प्रतिशत लोगों ने वोट डाला। 2012 के मुकाबले जब 2017 में इन सीटों पर वोटिंग घटी थी तो इसका भाजपा को नुकसान उठाना पड़ा था। 2012 में भाजपा ने इन 23 में से 16 सीटों पर जीत हासिल की थी, जबकि कांग्रेस के खाते में केवल छह सीटें गईं थीं। एक सीट अन्य के पास गई थी। 2017 में वोटिंग घटने के बाद सीटों पर जीत-हार का भी बड़ा असर देखने को मिला। तब भाजपा 16 से 11 सीटों पर आ गई और कांग्रेस छह से 12 सीटों पर पहुंच गई थी।

इसी तरह आदिवासी बहुल 14 सीटों की बात करें तो यहां भी वोटिंग प्रतिशत में गिरावट दर्ज हुई है। 2012 में इन 14 सीटों पर कुल 78.97 प्रतिशत लोगों ने वोट डाला था, जो 2017 में घटकर 77.83 प्रतिशत हो गई थी। इस बार इन सीटों पर कुल 69.86% लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया है। 2012 के मुकाबले जब 2017 में आदिवासी बहुल इन सीटों पर जब वोटिंग घटी थी तो इसका भाजपा को नुकसान उठाना पड़ा था। 2012 में भाजपा के पास इन 14 में से सात सीटों पर जीत मिली थी। कांग्रेस के पास छह और अन्य के पास एक सीट थी। 2017 में कांग्रेस को बढ़त मिली और भाजपा को नुकसान हुआ। तब भाजपा ने 14 में से पांच सीटों पर जीत हासिल की, जबकि कांग्रेस के सात उम्मीदवार जीत गए। दो सीटें अन्य के खाते में भी गईं।

सूबे में 'वोटिंग प्रतिशत में आई गिरावट को अगर पुराने आंकड़ों की रोशनी में देखें तो जब भी वोटिंग प्रतिशत में गिरावट हुई है, तब भाजपा को नुकसान उठाना पड़ा है। 2007, 2012 और फिर 2017 के चुनावी नतीजे इसकी मिसाल हैं। जहां-जहां वोटिंग प्रतिशत में कमी हुई, वहां कांग्रेस को जीत मिली। हालांकि, हर बार राजनीतिक पंडित इस गिरावट का फायदा भाजपा दे रहे हैं। उनका तर्क है कि आम आदमी पार्टी के चुनाव मुकाबले को त्रिकोना बनाने का फायदा भाजपा को मिल सकता है। 'पिछले चुनावों के मुकाबले इस बार की परिस्थिति कुछ अलग है। इस बार आम आदमी पार्टी ने भी पूरी ताकत झोंक रखी है। इसके अलावा मुस्लिम बहुत इलाकों में एआईएमआईएम की मौजूदगी ने भी राजनीतिक दलों में हलचल बढ़ा दी है। ऐसे में संभव है कि वोटिंग घटने के बावजूद भाजपा इसका फायदा उठाने में कामयाब हो जाए।' वहीं अगर भाजपा के स्टार प्रचारक पीएम मोदी की उनके गृह सूबे गुजरात में लोकप्रियता के इतिहास पर नजर डालें, तो 2002 से लेकर 2017 तक के चुनाव नतीज़ों में लगातार उनकी लोकप्रियता में गिरावट दर्ज हुई है। मौजूदा चुनाव पीएम मोदी ने खुद की लोकप्रियता को मुद्दा बनाकर डाला है, तो क्या इस बार मत विभाजन से ऐसा कोई चमत्कार होने वाला है, जिससे मोदी अपनी लोकप्रियता को अपने बूते पर बरकरार रखने में कामयाब हो जाएंगे। जबकि हालात इसके एकदम विपरित नजर आ रही है। पीएम मोदी की चिंता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रथम चरण के मतदान वाले दिन उनको तीन जनसभाओं में खुद के अपमान को मुद्दा बनाकर वोट मांगने पड़े। इतना ही नहीं उन्हें अपने गृह सूबे में राजनीति के इतिहास का सबसे बड़े रोड शो भी करना पड़ा है। पीएम बनने के बाद पिछली बार पीएम मोदी पूरी ताकत झौंकने के बावजूद बमुश्किल बहुमत का आंकड़ा हासिल कर सके थे। भाजपा 16 सीट के नुकसान के साथ 99 सीट पर सिमट गई थी।

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