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(सुरेन्द्र सुकुमार): असल्लाहमालेकुम दोस्तो ! एक दिन छोड़ कर हम फिर हुज़ूर साहब की ख़ानक़ाह पहुंचे। हमारे पहुंचते ही बोले, "आइए मियाँ सुकुमार साहब कल कहाँ रह गए थे? तशरीफ़ रखिए।" हमने कहा कि हुज़ूर साहब कल जीप सर्विसिंग के लिए गई थी। तो ख़ादिम को आवाज़ लगाई, 'मियां चाय लाइए।' हमने चाय पी... उसके बाद उन्होंने पान लगाया और हमें देते हुए बोले, 'मियाँ नोश फ़रमाइए, आपको पान बहुत रचता है।' हमने पान लेकर सलाम किया, पान मुंह में रख लिया। हुज़ूर साहब फिर बोले, "उस दिन हज़रत रबिया बसरी की दास्तान अधूरी रह गई थी, आज सुनते हैं।"
राबिया के पास कुछ भी नहीं था एक चटाई, एक फूटा घड़ा और एक ईंट थी। चटाई पर वो इबादत करती, उसी पर सो जाती, ईंट का तकिया बना लेती, घड़े में से पानी पी लेती। अड़ोसी पड़ोसी कुछ खाने को दे जाते, उसे खुदा की इनायत मान कर खा लेती थी। उसकी शौहरत आस पास के इलाके में खूब फैल गई थी। एक दिन कुछ मौलवी आलिम फ़ाज़िल उसके घर मेहमान हुए। उसे थोड़ी चिंता तो हुई कि इन मेहमानों का इस्तक़बाल कैसे करेगी?
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(सुरेन्द्र सुकुमार): असल्लाहमालेकुम दोस्तो ! अगले दिन हम सही समय पर फिर हुज़ूर साहब की ख़ानक़ाह पहुँचे। हमेशा की तरह महफ़िल जमी हुई थी। हमने उनके हाथों का बोसा लिया और बैठ गए। ‘तशरीफ़ रखिये मियाँ सुकुमार साहब लगता है कि रात में नींद में बहुत खलल पड़ा है।‘ हमने कहा, जी हुज़ूर साहब रात भर मंसूर के बारे में सोचते रहे।
बोले, ‘हम जानते थे कि आपको नींद नहीं आएगी, जब कोई रब की गहरी इबादत में मशरूफ़ हो जाता है, तो उसे भी ये ख्वाहिश जगने लगती है कि उसे भी रब के दीदार हो जाएं। पर इसमें जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए और न ही यह ख्वाहिश पालना चाहिए। इससे इबादत में खलल पड़ता है। मन इबादत से ज्यादा इस ख्याल में खो जाता है कि रब कब मिलेंगे। अरे मियाँ रब तो तब मिलेंगे, जब आपके सारे दुनियाँबी ख़यालात ख़त्म हो जाएंगे। रब को पाने का ख़्याल भी तो ख़्याल ही है न, ये ख़्याल भी दुनियाबी है।‘ हम भी अपने सद्गुरुओं के वचनों में डूब गए। यही तो ओशो ने कहा है, यही हमारी गुरू माँ कहती हैं और यही बात सूरज मुनि महाराज जी भी कहते थे। इसका अर्थ है कि मार्ग चाहे कोई भी हो, सत्य एक ही है।
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(सुरेन्द्र सुकुमार): असल्लाहमालेकुम दोस्तो ! अगले दिन हम फिर ख़ानक़ाह पहुंचे। हमेशा की तरह नशिस्त जमी हुई थी, हुज़ूर साहब बैठे हुए पान चबा रहे थे। हमें देख कर मुस्कुराए, "आइए मियाँ सुकुमार साहब मौज़ में हैं।"‘ जी हुज़ूर साहब, आपकी इनायत है। बोले, "नहीं मियाँ अल्लाह का क़रम है, कल तो आपने कमाल का सुनाया और बताइए इबादत कैसी चल रही है।" हमने कहा कि आपका और महाराज जी का हाथ सर पर है, तो सही ही चलेगी।
मुस्कुराए... ख़ादिम को आवाज़ दी, "मियाँ सुकुमार साहब के लिए चाय लाइए।" चाय आई। फिर हमने चाय पी, उसके बाद उन्होंने अपने हाथ से पान लगाया और बोले, "लीजिए मियाँ नोश फ़रमाइए।" हमने पान हाथ में लेकर सलाम किया और पान मुंह में रख लिया।
हमें बचपन से ही यह सिखाया गया था कि जब कभी भी कोई अपने से बड़ा कुछ पेश करे तो उसे सलाम करना चाहिए। थोड़ी देर बाद हमने पूछा कि हज़ूर साहब सूफ़ीवाद कबसे शुरू हुआ? तो बोले, "सूफ़ीइज़्म इस्लाम की एक रहस्यमयी धारा है।
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(सुरेन्द्र सुकुमार): असल्लाहमालेकुम दोस्तो ! अब तो हमारा यह हाल हो गया था कि जब भी हम कानपुर नितेश्वर आश्रम जाते तो हुज़ूर साहब की ख़ानक़ाह ज़रूर जाते। इस बार भी ऐसा ही हुआ जैसे ही हम पहुंचे उन्होंने गर्मजोशी से इस्तक़बाल किया, ‘‘आइए, मियाँ सुकुमार साहब... तशरीफ़ रखिए... लीजिए पान नोश फरमाइए।‘‘ हमने पान लिया और झुक कर सलाम किया। फिर वो बोले, ‘‘मियाँ कुछ नया कहा है क्या?‘‘ हमने कहा, जी हुज़ूर साहब एक ग़ज़ल हुई है रूहानी सी। तो बोले, ष्‘अरे वाह, तो फिर देर किस बात की... सुनाइए... और हाँ तरन्नुम से सुनाइए।‘ हमने कहा कि हुज़ूर साहब हमारा तरन्नुम बहुत अच्छा नहीं है। तो बोले, ‘तो क्या हुआ? कौन सा मुशायरे में सुना रहे हैं। हमने सुनाना शुरू किया...
पियक्कड़ों की यह महफ़िल है यहाँ सम्भल के आना जी,
जो भी आए सुनो यहाँ पर हो जाए मस्ताना जी।
मैं तुलसी का भक्त हूँ प्यारे कबिरा का दीवाना जी,
एक जगह धूनी है रमाई कहीं न आनाजाना जी।
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