ताज़ा खबरें
ज्वलंत मुद्दों पर जवाब नहीं देकर पीएम मोदी ने चुनावी भाषण दिया: विपक्ष
विकसित भारत का सपना कोई सरकारी सपना नहीं है : पीएम मोदी
दिल्ली यानि मिनी इंडिया का चुनाव बना 'पीएम मोदी बनाम केजरीवाल'
महाकुंभ की अव्यवस्था को नेता सदन अपने में भाषण नकार दें: अखिलेश
दिल्ली चुनाव: सरकार ने 5 फरवरी को सार्वजनिक अवकाश किया घोषित
गंगा में नहीं चलीं नावें, पुलिस पर उत्पीड़न का आरोप, बंद रहेगा संचालन

इलाहाबाद: इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा है कि तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं के साथ क्रूरता है। कोर्ट ने कहा कि तीन तलाक असंवैधानिक और महिला अधिकारों के खिलाफ है। यह समाज और देश के हित में नहीं है। हालांकि मुस्लिम समुदाय के सभी वर्ग तीन तलाक को मान्यता नहीं देते किंतु एक बड़ा मुस्लिम समाज तीन तलाक स्वीकार कर रहा है। यह न केवल संविधान के समानता एवं भेदभाव विहीन समाज के मूल अधिकारों के विपरीत है वरना भारत के एक राष्ट्र होने में बाधक है। वहीं, इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस फैसले के बाद बरेलवी उलेमा ने फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की बात कही है। कोर्ट ने कहा है कि पवित्र कुरान में पति पत्नी के बीच सुलह के सारे प्रयास विफल होने की दशा में ही तलाक या खुला का नियम है, किंतु कुछ लोग कुरान की मनमानी व्याख्या करते हैं। पर्सनल लॉ संविधान द्वारा प्रदत्त वैयक्तिक अधिकारों के ऊपर नहीं हो सकता। हालांकि शादी व तलाक की वैधता पर कोर्ट ने कोई फैसला नहीं दिया। किंतु 23 साल की लड़की से 53 साल की उम्र में शादी की इच्छा रखने वाले पुरुष द्वारा दो बच्चों की मां को तलाक देने को सही नहीं माना। कोर्ट ने कहा कि दूसरी शादी के लिए पहली पत्नी को तीन तलाक देकर हाईकोर्ट से सुरक्षा की गुहार नहीं की जा सकती। कोर्ट ने हस्तक्षेप करने से इंकार करते हुए नवविवाहिता पति-पत्नी की सुरक्षा की मांग में दाखिल याचिका खारिज कर दी।

यह आदेश न्यायमूर्ति सुनीत कुमार ने श्रीमती हिना व अन्य की याचिका पर दिया है। कोर्ट ने कहा कि कुरान में पुरुष को पत्नी का तलाक से रोका गया है। यदि पत्नी के व्यवहार या बुरे चरित्र के कारण वैवाहिक जीवन दुखमय हो गया हो तो पुरुष विवाह विच्छेद कर सकता है। इस्लाम में इसे सही माना गया है, किंतु बिना ठोस कारण के तलाक को धार्मिक या कानून की निगाह में सही नहीं ठहराया जा सकता। कई इस्लामिक देशों में पुरुष को कोर्ट में तलाक के कारण बताने पड़ते हैं, तभी तलाक मिल पाता है। इस्लाम में अपरिहार्य परिस्थितियों में ही तलाक की अनुमति दी गई है, वह भी सुलह के सारे प्रयास खत्म होने के बाद। ऐसे में तीन तलाक को सही नहीं माना जा सकता। यह महिलाओं के साथ भेदभाव है, जिसे रोकने की गारंटी संविधान में दी गई है। कोर्ट ने कहा कि पंथ निरपेक्ष देशों में संविधान के तहत माडर्न कानून सामाजिक बदलाव लाते हैं। भारत में भी संख्या में मुसलमान रहते हैं। मुस्लिम औरतों को पुराने रीति रिवाजों व सामाजिक मान्यताओं वाले वैयक्तिक कानून के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। ऐसे ही हसीन मियां की पत्नी उमर बी ने मुस्लिम अली से निकाह कर लिया। हसीन मियां दुबई में नौकरी करते हैं। उमर बी का कहना है कि पति ने टेलीफोन पर ही तीन तलाक दे दिया, इसलिए उसने दूसरे से निकाह किया। जबकि हसीन मियां इससे इंकार कर रहे हैं। उनका कहना है कि पत्नी तीन तलाक का सहारा लेकर अपने प्रेमी से निकाह को जायज ठहरा रही है। कोर्ट ने उनसे पुलिस अधीक्षक से सहायता लेने को कहा है। इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा तीन तलाक को असंवैधानिक करार दिए जाने पर बरेलबी मसलक के उलेमा खफा हैं। दारुल इफ्ता मंजरे इस्लाम, दरगाह आला हजरत के मुफ़्ती मोहम्मद सलीम नूरी ने अपनी त्वरित प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि सोची समझी साजिश के तहत शरीयत और इस्लाम की जानकारी न रखने वाली कुछ मुस्लिम महिलाओं को तैयार करके उनसे इस तरह की रिट दाखिल कराई गई। देश के संविधान ने पर्सनल लॉ को सही माना है। इस्लाम का कानून महिलाओं के खिलाफ नहीं है। हाईकोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट में अपील की जाएगी।

  • देश
  • प्रदेश
  • आलेख