नई दिल्ली (नरेन्द्र भल्ला): 14 अक्टूबर-विधानसभा चुनावों की घोषणा से ऐन पहले एनसीपी नेता बाबा सिद्दीकी की हत्या ने महाराष्ट्र की सियासत समेत बॉलीवुड में भी भूचाल ला दिया है। इसकी वजह भी है। एक जमाने में घड़ियां बनाने वाले बाबा कब व कैसे मुम्बई कांग्रेस का एक कद्दावर चेहरा बन गये, इसका अंदाजा तो उनके करीबी भी नहीं लगा पाए थे। जिस तेजी से उन्होंने बॉलीवुड में अपनी पैठ बनाते हुए दिग्गज़ फिल्मी सितारों के साथ अपने निजी रिश्ते बनाये, यह देखकर कई बड़े नेताओं को भी बाबा से रंज होता था। हालांकि बाबा को नजदीक से जानने वाले मानते हैं कि पिछले 45 बरस में बाबा ने शायद ही किसी को अपना दुश्मन माना हो।
लगातार तीन बार कांग्रेस के टिकट पर विधायक बनने वाले बाबा 2009 में जब बांद्रा वेस्ट से चुनाव लड़ रहे थे,तब इस संवाददाता ने उनसे पूछा था कि "आखिर क्या वजह है कि राजनीति से लेकर बॉलीवुड और मुस्लिमों से लेकर हिन्दू धार्मिक संस्थाओं के लोग भी आपका गुणगान करने में कंजूसी नहीं बरतते? तब बाबा का जवाब था- मैं परोपकार करने में यकीन रखता हूँ और ये नहीं देखता कि कौन मेरे मजहब का है और कौन हिंदू है।
उन्होंने कहा, राजनीति हो या समाज,मैंने किसी से नफ़रत नहीं की और यही वजह है कि इस मुंबई में आज तक मैंने किसी को अपना दुश्मन नहीं माना।
बॉलीवुड की दुनिया से बाहर शायद बहुत कम लोग ही ये जानते होंगे कि साल 2008 से लेकर 2013 तक शाहरुख़ खान और सलमान खान के बीच इस क़दर गहरे मतभेद थे कि दोनों को एक -दूसरे की शक़्ल तक देखना पसंद नहीं था। लेकिन बाबा सिद्दीकी ने एक झटके में ही इस दुश्मनी को दोस्ती में बदलकर रख दिया। उनकी 2013 की इफ्तार पार्टी उस समय सुर्खियों में आई जब बॉलीवुड के ये दो बड़े सुपरस्टार, शाहरुख खान और सलमान खान ने पांच साल से चले आ रहे अपने मतभेदों को खत्म करते हुए एक-दूसरे को गले लगाया। इस 'सुलह' का सारा श्रेय बाबा सिद्दीकी को दिया गया।
हालांकि बाबा सिद्दीकी अपनी वार्षिक इफ्तार पार्टियों के लिए भी व्यापक रूप से पहचाने जाते थे, जो उनकी राजनीतिक पहचान का एक प्रमुख हिस्सा थीं। ये आयोजन न केवल सांस्कृतिक सद्भाव का प्रदर्शन करते थे, बल्कि विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं, बॉलीवुड सितारों और उद्योग जगत की हस्तियों को एक साथ मंच पर लाते थे। नेताओं-सितारों और कारोबारियों के आपसी गिले-शिकवों को दूर करने का बाबा का ये अनूठा तरीका था और मजे की बात है कि हर पक्ष उनकी बात को मानते हुए सामने वाले से या तो माफ़ी मांग लेता था या फिर उसे माफ कर देता था।