(आशु सक्सेना): केंद्र की सत्ता पर करीब एक दशक से काबिज भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने लोकसभा चुनाव के सेमी फाइनल में हिंदी भाषी तीन सूबों में जीत का परचम फहरा कर चुनावी राजनीति के फाइनल मुकाबले के लिए मजबूत दावेदारी दर्ज़ की है। प्रधानमंत्री ने बीते 15 अगस्त को दिल्ली केे लाल किले की प्राचीर से यह दावा किया था कि अगले साल भी वही 'राष्ट्रीय ध्वज' फराएंगे।
सेमी फाइनल के नतीज़ों को अगर आधार माना जाए, तो पिछले एक दशक से बीजेपी के स्टार प्रचारक पीएम मोदी अपने दावे को अमलीजामा पहनाने की स्थिति में नज़र आ रहे हैं। वह देश के पहले पीएम जवाहर लाल नेहरू का रिकार्ड तोड़ते नज़र आ रहे हैं।
लेकिन अगर दुर्भाग्य से क्रिकेट वनडे विश्वकप की तरह लोकतंत्र की चुनावी राजनीति के फाइनल मुकाबले में पीएम मोदी अपनी तीसरी पारी के लिए लोकसभा में बहुमत का जादुई आंकड़ा हासिल करने में असफल रहे, तब बीजेपी के संरक्षक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की भूमिका क्या होगी? यह एक बहुत बड़ा सवाल है? क्या आरएसएस अपनी स्थापना के 99वें में साल में पीएम मोदी पर ही दाव खेलेगी?
या फिर वह 'अटल बिहारी बाजपेयी' जैसे किसी ब्रांड चेहरे को आगे करके अपनी स्थापना की 100वीं सालगिरह का जश्न केंद्र की सत्ता पर काबिज रहते हुए मनाने की रणनीति को अंजाम देगी।
हाल में संपन्न पांच सूबों के विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा ने तीन सूबों में सरकार का गठन कर लिया है। हांलाकि बीजेपी के स्टार प्रचारक पीएम मोदी अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद दक्षिण के एकमात्र सूबे कर्नाटक में अपनी 'डबल इंजन' सरकार की सत्ता बरकरार रखने में कामयाब नहीं हुए। इस पराजय से जहां पीएम मोदी के 'कांग्रेस मुक्त भारत' के नारे को झटका लगा है। वहीं पीएम मोदी के लिए इस सूबे की 28 में से 25 सीटों पर जीत का परचम पुन: फहराने की चुनौती भी खड़ी हो गयी है। वहीं पूर्वोत्तर के चुनावी सूबे मिजोरम में पीएम मोदी ने एक भी चुनावी सभा नहीं की, जबकि 40 विधानसभा वाले इस सूबे में बीजेपी ने 23 प्रत्याशी खड़े किए थे। इस परिदृश्य के बाद एक तस्वीर यह साफ हो गयी है कि पीएम मोदी की लोकप्रियता में गिरावट आयी है। जिसका खामियाजा बीजेपी को लोकसभा चुनाव में भुगतना पड़ सकता है।
इस खतरे को भांपते हुए बीजेपी के संरक्षक संगठन आरएसएस ने हिंदी भाषी तीनों सूबों में संगठन के 'काडर' को सत्ता की बागड़ोर सौंपी है। इसके अलावा इन तीनों ही सूबों में 'काडर' के बीच सत्ता के सहज हस्तांतरण का संदेश देने में भी भगवा संगठन सफल रहा है। इस समूचे राजनीति परिदृष्य में सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि इन तीनों ही सूबों में बीजेपी के पूर्व मुख्यमंत्रियों को पीएम मोदी पुन: सत्ता सौंपने के पक्ष मे नहीं थे, चुनावी नतीज़ों के बाद जो तस्वीर उभरी उसमें पीएम मोदी की नापसंद दावेदार ही सबसे मजबूत दावेदार बनकर उभरे। जिसके बाद पार्टी में मोदी-शाह की जोड़ी तीनों सूबों में अपनी मर्जी से मुख्यमंत्री नियुक्त करने की स्थिति में थी। लेकिन जब तीनों ही सूबों में पूर्व मुख्यमंत्रियों ने ही विधायक दल का नेता चुने जाने का प्रस्ताव पेश किया। यह पार्टी में मोदी-शाह की जोड़ी को आरएसएस के संदेश के तौर पर देखा जा सकता है।
बीजेपी ने हिंदी भाषी इन तीनों ही सूबों में जातिगत समीकरणों को साधते हुए मुख्यमंत्री और दो उप मुख्यमंत्री बनाए हैं। राजस्थान में पार्टी ने ब्राह्मण को मुख्यमंत्री बनाया है। इस बात का प्रचार भी बहत जोरशोर से किया गया कि राजस्थान को 33 साल बाद ब्राह्मण मुख्यमंत्री मिला है। वहीं एमपी और छत्तीसगढ़ में पिछडों को सत्ता की कमान सौंपी गयी है। लेकिन दोनों ही जगह एक सवर्ण को उप मुख्यमंत्री बनाया गया है।
हिंदी भाषी तीनों सूबों में आरएसएस ने लोकसभा चुनाव की सियासी विसात पर शतरंज के मोहरों को सजा दिया है। मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में अहम पहलू यह है कि एमपी के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सत्ता हस्तांतरण के बाद आ रहे बयानों से जो संदेश जा रहा है। उससे साफ झलक रहा है कि शिवराज सिंह को आरएसएस पार्टी का संभावित प्रधानमंत्री के दावेदार की तरह पेश कर रहा है।
दरअसल, 2019 के लोकसभा चुनाव वक्त बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन की शक्ल पूरी तरह बदल चुकी है। इस गठबंधन से महाराष्ट्र की शिवसेना, पंजाब की शिरोमणि अकाली दल और बिहार की जेडीयू जैसे मजबूत घटक नाता तोड़ चुके हैं। लिहाजा 2024 में अगर बीजेपी बहुमत के जादुई आंकड़े से नीेचे आयी, तब पीएम मोदी के नेतृत्व में नये घटक मिलना मुश्किल होगा।
ऐसे में आरएसएस यानि भाजपा नेतृत्व की निगाह उन क्षेत्रीय दलों पर होगी, जिनका सीधा मुकाबला कांग्रेस से हो। ऐसे में कांग्रेस विरोध के नाम पर उन दलों को पार्टी के किसी नये चेहरे के लिए राजी किया जा सके।
उधर, आईएनडीआईए (इंडिया) गठबंधन की सक्रियता बढ़ने लगी है। गठबंधन संसद के शीतकालीन सत्र में संसद के अंदर एकजुटता का संदेश दे रहा है। वहीं सत्र के दौरान 19 दिसंबर को दिल्ली में इंडिया गठबंधन की बैठक होने जा रही है। गठबंधन के नेताओं का कहना है कि इस बैठक में लोकसभा में सीटों के बंटवारे पर अहम चर्चा होगी। गठबंधन की कोशिश होगी कि अधिकांश राज्यों में बीजेपी नेतृत्व वाले एनडीए उम्मीदवार के सामने एक संयुक्त प्रत्याशी उतारें। हांलाकि पूरे देश में इंडिया गठबंधन की यह रणनीति आकार लेती नज़र नहीं आ रही है। क्योंकि कई ऐसे सूबे है, जहां इंडिया गठबंधन के घटक दल सूबे में मुख्य प्रतिद्वंदी हैं।
संघ की बागड़ोर हमेशा 'ब्राह्मण' के पास ही रही है
बहरहाल, सत्ता में समझौते की मजबूरी के चलते आरएसएस ने अपने एक शताब्दी के उसूलों में थोड़ी तब्दीली भी है। आरक्षण की कट्टर विरोधी आरएसएस अब आरक्षण का समर्थन करती नज़र आ रही है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने पिछले दिनों यह कहना शुरू कर दिया है कि सामाजिक न्याय मिलने तक आरक्षण लागू रहना चाहिए। यह आरएसएस का जातिगत समीकरणों के मद्देनज़र दिखावटी रूख है। लेकिन संघ ने तीनों सूबों में संवर्णों खासकर 'ब्राह्मणों' को विशेष महत्व देकर अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता स्पष्ट कर दी है। आपको याद दिला दें कि आरएसएस के 99 साल के इतिहास में जाट समुदाय के रज्जू भईया को छोड़कर संगठन की बागड़ोर हमेशा 'ब्राह्मण' के पास ही रही है।