(अरुण दीक्षित) राजधानी भोपाल में सरकार के प्रमुख प्रशासनिक भवन में 12 जून को लगी आग तो करीब दस घंटे बाद बुझ गई लेकिन इस आग ने ऐसे कई सवाल खड़े कर दिए हैं जिनके जवाब सब चाहेंगे? पर उनके मिलने की उम्मीद बेमानी होगी।इस आग ने सरकार और उसके मुखिया दोनों को ही कटघरे में खड़ा कर दिया है। पर उसकी परवाह कौन करता है।
सोमवार दोपहर साढ़े तीन बजे जिस इमारत में आग लगी वह मंत्रालय से मात्र 40 मीटर की दूरी पर है। मुख्यमंत्री और मुख्यसचिव के आलीशान दफ्तर से सतपुड़ा नाम की इस इमारत को बड़ी बारीकी से देखा जा सकता है। इसमें कई महत्वपूर्ण विभागों के दफ्तर हैं। हजारों कर्मचारी इसमें रोज आते जाते हैं।
मजे की बात यह है कि सतपुड़ा से फायर ब्रिगेड मुख्यालय भी कुछ मीटर की दूरी पर ही है।फायर ब्रिगेड का स्थानीय फायर स्टेशन भी ज्यादा दूर नहीं है। इसके बाद भी आग बुझाने में 10 घंटे से ज्यादा का समय लग गया। दशकों पुराना भवन करीब 80 प्रतिशत खाक हो गया है।
नुकसान कितना हुआ यह सरकार ने नही बताया है। कितनी महत्वपूर्ण फाइलें जलीं हैं, तो कभी बताया भी नही जायेगा। हो सकता है कि इस आग की आड़ में कुछ और फाइलें भी स्वाहा हो जाएं।
दोपहर में आग लगी। उस समय सभी कर्मचारी दफ्तर में ही थे। आग की खबर आग की तरह ही फैली। इसलिए सभी कर्मचारी सतपुड़ा से बाहर निकल गए। कोई हताहत नहीं हुआ। यह अच्छी खबर है।
लेकिन तीसरी मंजिल पर लगी छोटी सी आग को सरकार की मशीनरी बुझा नही पाई। क्योंकि आग बुझाने की कोई व्यवस्था इस सरकारी इमारत में थी ही नहीं। आग बढ़ते-बढ़ते तीसरी से छठी मंजिल तक जा पहुंची। लेकिन भोपाल में मौजूद आग बुझाने के सभी उपकरण मौके पर पहुंच कर भी नाकाम रहे। आग उनकी क्षमता से कहीं ज्यादा विकराल थी। फायर ब्रिगेड का हाइड्रोलिक प्लेटफार्म तो घंटे भर तक खुल ही नही पाया।
राजधानी की प्रमुख इमारत धधकती रही और फायर ब्रिगेड व अन्य सरकारी अमला देखता रहा। क्योंकि उनके पास वह संसाधन ही नही थे जो तत्काल आग पर काबू कर सकें।
सतपुड़ा में जब आग लगी तब मुख्यमंत्री सैकड़ों किलोमीटर दूर एक धार्मिक कार्यक्रम में शिरकत कर रहे थे। शाम को वे भोपाल पहुंचे। हालांकि तब तक सेना को भी बुला लिया गया था। अन्य सभी संभावित मददगारों को भी खबर कर दी गई थी।
बताते हैं कि भोपाल में सरकारी दफ्तर में लगी आग को बुझाने के लिए मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फोन किया। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से भी बात की। गृहमंत्री अमित शाह को भी बताया कि उनके दफ्तर के बगल वाली इमारत जल रही है। जाहिर है कि उन्होंने इन तीनों से आग बुझाने में मदद मांगी।
बताते हैं कि यह भी तय हुआ कि वायुसेना के विमान भोपाल आकार आग बुझाने में मदद करेंगे! लेकिन आधी रात के बाद भी विमान भोपाल नही पहुंचे। बिल्डिंग की चार मंजिलों को स्वाहा करके आग कमजोर पड़ी! बाद में बुझी भी! यह काम भी, मुख्यरूप से, एयर पोर्ट के फायर फाइटर सिस्टम की वजह से हो पाया।
लेकिन इस आग ने चुनावी इवेंट मोड में चल रही सरकार की पोल खोल कर रख दी। यह बात साफ हो गई कि बड़े हादसों से निपटने में राज्य सरकार की मशीनरी सक्षम ही नही है। मुख्यमंत्री द्वारा आग बुझाने के लिए दिल्ली से मदद मांगे जाने ने गांव की एक कहावत याद दिला दी। गांव में ऐसे मामलों में अक्सर कहा जाता है - आग लगी घर में.. पानी ढूंढे हार (खेत) में।
प्रदेश में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने का रिकॉर्ड बना चुके और सबसे अनुभवी राजनेता ने यह मान लिया कि उनकी सरकार एक इमारत में लगी आग बुझाने में सक्षम नहीं है? एक बिल्डिंग में आग लगी थी..कोई भूकंप या तूफान तो नही आया था जो दिल्ली से मदद मांगी!
बात यह भी आई कि राज्य सरकार ने राजधानी में भी आग से बचाव के प्रबंध पर ध्यान नहीं दिया है। जब 6 मंजिल ऊंची इमारत में लगी आग को बुझाने के लिए ही पर्याप्त संसाधन नही हैं, तो शहर की बहुमंजिला इमारतों की तो सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है।
अब यह कौन पूछे कि राजधानी में बड़ी आग से निपटने की व्यवस्था किसे करनी थी? दिल्ली की सरकार को या भोपाल की सरकार को। बड़ी-बड़ी इमारतों में फायर सेफ्टी का ऑडिट कराना किसकी जिम्मेदारी थी। सरकार अपने भवनों का तो ऑडिट भी नही कराती है। भोपाल नगर निगम ने शहर की कुछ इमारतों का फायर ऑडिट किया था, लेकिन इनमें एक भी सरकारी इमारत शामिल नहीं थी।
बताया यह भी गया है कि प्रदेश में न तो फायर एक्ट लागू है और न ही नेशनल बिल्डिंग कोड! इसलिए ज्यादातर इमारतों में फायर सिस्टम है ही नही। कहा जा सकता है कि यह कांग्रेस की गलती है। लेकिन करीब दो दशक से सत्ता पर काबिज होने की वजह से तत्काल यह बयान नही आया। हो सकता है कि आने वाले दिनों में ऐसा भी खुलासा कर दिया जाए।
एक मजेदार तथ्य और सामने आया है। भोपाल में इन दिनों एक ख्यात कथावाचक एक मंत्री के चुनाव क्षेत्र में "चुनावी कथा" सुना रहे हैं। लाखों लोग रोज कथा सुनकर पुण्य अर्जित कर रहे हैं। बताते हैं कि मंत्री की कृपा से मेयर की कुर्सी तक पहुंची मोहतरमा ने नगर निगम के सभी कर्मचारियों की ड्यूटी कथा स्थल पर लगा रखी है। नगर निगम के फायर ब्रिगेड के कर्मचारियों को भक्तों को पानी पिलाने का जिम्मा दिया गया है। इसलिए वे तत्काल काम पर नही लग पाए।जब तक उन्हें इकट्ठा किया गया तब तक आग अपना रौद्र रूप दिखा चुकी थी। अब यह सवाल भी नही पूछा जा सकता है कि भगवान और भक्तों के बीच सेतु होने का दावा करने वाले कथावाचक ने आग बुझाने के लिए दैवीय शक्तियों का आह्वान क्यों नही किया?
यह सवाल पूछना भी बेमानी है कि प्रदेश में भगवानों के लोक बनाने पर हजारों करोड़ खर्च करने वाली सरकार ने राज्य में आग बुझाने की व्यवस्था को दुरुस्त करने की ओर ध्यान क्यों नही दिया! संभव है कि सरकार यह मान रही हो कि जब प्रदेश में हर भगवान का अपना लोक होगा तो "अग्नि देवता" कैसे नाराज हो सकते हैं?
फिलहाल जैसा कि हमेशा होता है..सरकार ने आज की घटना के लिए जांच समिति बना दी है। आग को लेकर उठ रहे सवालों के साथ ही सरकार की सफाई आ गई है कि जहां आग लगी है वहां न तो संवेदनशील दस्तावेज थे। न ही वहां टेंडर खरीदी होती थी। आदिवासी कल्याण,परिवहन और स्वास्थ्य विभाग के दफ्तर थे। आग से सरकारी काम प्रभावित नही होगा।
उधर विपक्ष इस आग को हादसा नही साजिश मान रहा है। उसका कहना है कि चुनाव के पहले आग का लगना और आग बुझाने के लिए दिल्ली से "पानी" मांगा जाना बहुत कुछ प्रमाणित कर रहा है।
बताया गया है कि फौज में एक नियम होता है कि अगर कोई जगह छोड़नी हो और कोई भी सामान साथ लाने की स्थिति न हो, तो सबसे पहले संवेदनशील दस्तावेज नष्ट कर देने चाहिए। अब सतपुड़ा में ऐसा क्या था ये तो सरकार ही जाने!
बात भी सही है! सरकार की बात सरकार ही जाने! पर उससे यह पूछे भी कौन..जब बड़ा तालाब बगल में था, तो दिल्ली से "पानी" क्यों मांगना पड़ा? और फिर कोई पूछे भी तो कैसे...सरकार तो इवेंट में व्यस्त है। रही आग की बात..तो रात गई.. बात गई। अभी तो चुनाव चुनाव खेलना है। रेवड़ियां बांटनी हैं।
शायद इसीलिए सरकार भी कहती है कि अपना एमपी गज्जब है...आप ही बताइए है कि नहीं..आग भोपाल में...पानी की मांग दिल्ली से!