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(आशु सक्सेना): उत्तर प्रदेश में लोकसभा उपचुनाव के लिए समाजवादी पार्टी (सपा) ने दोनों संसदीय सीटों पर उम्मीदवारों के चयन, राज्यसभा प्रत्याशियों और विधान परिषद चुनाव में पार्टी प्रत्याशियों की घोषणा के साथ ही 2024 के लोकसभा चुनाव की रणनीति को अमलीजामा पहनाना शुरू कर दिया है। प्रदेश की दो लोकसभा सीट पर हो रहे उपचुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा ने दोनों ही क्षेत्रों से अपने प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारे हैं। लेकिन बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने सिर्फ आजमगढ़ से प्रत्याशी घोषित किया है। जबकि केंद्र में प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने खुद को इस लड़ाई से बाहर कर लिया है। लिहाजा मुकाबला आमने-सामने का है।

सपा ने आजमगढ़ से पूर्व सांसद धर्मेंद्र यादव को चुनाव मैदान में उतारा है। वहीं रामपुर से पार्टी के सबसे बड़े मुसलिम नेता आज़म खां ने नामांकन से ठीक पहले आसीम रज़ा की उम्मीदवारी का एलान किया है। पिछली लोकसभा में धर्मेंद्र यादव पार्टी के उन पांच सांसदों में से एक थे, जो हर मुद्दे पर मोदी सरकार के खिलाफ आक्रामक अंदाज़ में बोलते थे।

साथ ही प्रदेश की सपा सरकार के कार्यकाल में हुए प्रदेश के कामों को गिनाने का भी काम करते थे।

आपको याद दिला दें कि 16 वीं लोकसभा में सपा सिमट कर पांच सीट पर आ गयी थी। यह पांचों निर्वाचित सैफई परिवार के थे। परिवार के मुखिया मुलायम सिंह यादव के अलावा डिंपल यादव, तेज प्रताप यादव, अक्षय यादव और धर्मेंद्र यादव लोकसभा में पार्टी का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। इस पारिवारिक समीकरणों में लोकसभा में संसदीय कामकाज की सारी जिम्मेदारी धर्मेंद्र यादव पर आना स्वाभाविक था। अपनी इस भूमिका को धर्मेंद्र यादव ने बाखूबी निभाया। यूं तो धर्मेंद्र यादव 2004 में पहली बार मैनपुरी से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे। जबकि 2009 और 2014 का चुनाव उन्होंने सपा की परंपरागत सीट बदायूं से जीता था। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में धर्मेंद यादव को बदायूॅं में योगी सरकार के मंत्री स्वामी प्रसाद मोर्या की बेटी संघप्रिया मोर्या ने करीब बीस हज़ार मतों के अंतराल से चुनाव हराया था। संघप्रिया मोर्या वर्तमान में भाजपा सांसद है। 2019 के लोकसभा चुनाव में सैफई परिवार के मुलायम सिंंह यादव और पार्टी मुखिया अखिलेश यादव के अलावा परिवार के सभी उम्मीदवार चुनाव हारे थे। यह बात दीगर है कि संसद में पार्टी की सदस्य संख्या पांच बरकरार रही।

इस वक्त सपा की सबसे बड़ी चुनौती लोकसभा में अपनी सदस्य संख्या को बरकरार रखना है। वहीं पार्टी की कोशिश यह भी होगी कि अगले दो साल लोकसभा में सपा की भूमिका चर्चा में भी रहे। दोनों सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा के बाद स्थिति साफ हो गयी है। मुख्य मुकाबला सपा और सत्तारूढ़ भाजपा के बीच है। दोनों संसदीय क्षेत्रों के जातिगत और सामाजिक समीकरण सपा के पक्ष में नज़र आ रहे हैं। यूं चुनाव में कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। आपको याद दिला दें कि 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद भी सूबे में दो संसदीय सीटों पर उप चुनाव हुआ था। एक सीट गोरखपुर थी, जहां से सूबे के मुख्यमंत्री आदित्य नाथ योगी ने इस्तीफा दिया था। वहीं दूसरी फूलपुर लोकसभा सीट से भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मोर्या के इस्तीफे से खाली हुई थी। उप चुनाव में इन दोनों सीट पर सत्तारूढ़ दल भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था। जबकि उस वक्त योगी सीएम और मोर्या डिप्टी सीएम थे। दिलचस्प पहलू यह है कि केशव प्रसाद मोर्या डिप्टी सीएम रहते हुए 2022 का विधानसभा चुनाव भी हारे गये हैं और अब भाजपा उन्हें विधान परिषद के मार्फत सदन में भेज रहीं है।

योगी सरकार से इस्तीफा देकर सपा में शामिल हुए स्वामी प्रसाद मोर्या को सपा ने विधान परिषद उम्मीदवार बना कर प्रदेश में उभरे सामाजिक समीकरणों को बनाए रखने का प्रयास किया है। निश्चित ही सपा का यह फैसला 2024 के लोकसभा चुनाव तैयारियों की रोशनी में लिया गया है। हांलाकि विधान परिषद चुनाव के लिए उम्मीदवारों की घोषणा के बाद सपा के महागठबंधन को थोड़ा झटका लगता दिखा। नामों का एलान होते ही सबसे पहले महान दल के अध्यक्ष केशव देव मौर्य ने गठबंधन से अलग होने की बात कही है। उनकी पार्टी के उम्मीदवारों ने सपा के चुनाव चिंह पर दो विधानसभा सीटों से चुनाव लड़ा था और दोनों ही सीट हार गये थे। वह खुद​ टिकट की उम्मीद लगाए हुए थे। गठबंधन के दूसरे नेता सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के ओमप्रकाश राजभर हैं। राजभर अपने बेटे को विधान परिषद के जरिए सदन में भेजना चाहते थे। उनके बेटे अरविंद राजभर बनारस में अनिल राजभर से चुनाव हार गए थे। उन्हें बड़ी उम्मीद थी कि समाजवादी पार्टी की इस जीत में राजभरों का बड़ा योगदान है। लिहाजा समाजवादी पार्टी उनके बेटे को विधान परिषद का टिकट जरूर देगी, लेकिन जब नहीं मिला तो अब दर्द छलक कर बाहर आ रहा है। वह कह रहे हैं कि हम बहुत छोटी पार्टी हैं, लिहाजा हमारा ख्याल नहीं रखा गया। गठबंधन के नेता सुभासपा के ओमप्रकाश राजभर गठबंधन से अलग होने की बात अभी नहीं कर रहे हैं, लेकिन उन्‍होंने अपनी नाराजगी व्यक्त कर दी है।

दरअसल, अखिलेश यादव ने इस नाराजगी के बीच जिन चार लोगों को चुना है उसके पीछे की गणित बहुत साफ है। इन 4 लोगों में एक उम्मीदवार स्वामी प्रसाद मौर्य है, जो विधानसभा से पहले ही योगी सरकार में मंत्री पद छोड़कर सपा के साथ आए थे और अखिलेश को बड़ी ताकत दी थी। वह चुनाव नहीं जीत पाए थे। लिहाजा उन्हें विधान परिषद में भेज कर सपा मुखिया अखिलेश 2024 के सामाजिक समीकरणों को दुरूस्त रखना चाहते है। दूसरे उम्मीदवार मुकुल यादव हैं। वे मैनपुरी जिले की करहल सीट से चार बार विधायक रहे सोबरन सिंह यादव के बेटे हैं, उनको सियासत में एंट्री दिलाकर यादव बिरादरी को एक संदेश देने की कोशिश की है। तीसरे उम्मीदवार शाहनवाज खान उर्फ शब्बू हैं, वे आजम खान के नजदीकी सरफराज खान के बेटे हैं। अखिलेश ने यह टिकट देकर आजम खान से अपनी नजदीकियों और पार्टी में आज़म खां की हैसियत का एहसास करवा दिया है। आज़म खां सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव के सबसे नजदीक और चहेते मुसलिम नेता हैं। आज़म खां पार्टी की स्थापना से पार्टी के एक मुखर वक्ता रहे हैं। वह दिल्ली जामा मसजिद के शाही इमाम को यह कहते हुए चर्चा में रहे हैं कि बुखारी इमामी करें, सियासत ना सिखाए। ऐसे पार्टी प्रवक्ता के पसंदीदा लोकसभा उम्मीदवार से उम्मीद की जाती है कि वह संसद में पार्टी के मुखर वक्ता होंगे। यहां यह ज़िक्र करना मौजू होगा कि मौजूदा लोकसभा में आज़म खां की एक टिप्पणी सदन में भाजपा सांसद रविशंकर प्रसाद की आपत्ति के बाद मुद्दा बन गयी थी। बाद मैं आज़म खां ने महिला सम्मान को सर्वोच्च बताते हुए खेद व्यक्त किया था। उसके बाद जेल में रहने के कारण वह लोकसभा का सामना ज़्यादा नहीं कर पाए और जेल में रहते हुए विधानसभा चुनाव जीतकर अब लोकसभा से अ​लविदा कह चुके हैं। सपा के चौथे उम्मीदवार जास्मीन अंसारी हैं इसके जरिए सपा प्रमुख ने मुसलमानों की अंसारी बिरादरी को साधने की कोशिश की है।

सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने राज्यसभा प्रत्याशियों के चयन से लेकर विधान परिषद के चेहरों के चयन तक और अब सूबे में होने वाले लोकसभा उपचुनाव के उम्मीवारों की घोषणा के साथ ही 2024 के लोकसभा चुनाव की लड़ाई का बिगुल फूंक दिया है। अगर कोई चमत्कार नहीं हुआ, तो लोकसभा में सपा अपनी सदस्य संख्या बरकरार रखने में सफल रहेगी और पार्टी दो अच्छे वक्ताओं से जनता की आवाज़ संसद में बुलंद कराने में कामयाब होगी।

2024 के लोकसभा चुनाव में सपा को कितनी सफलता मिलेगी यह कहना तो मुश्किल है, ले​किन राष्ट्रीय स्तर पर जो तस्वीर उभर रहीं है, उसमें सपा की भूमिका एक बार फिर महत्वपूर्ण होती नज़र आ रहीं है। 2019 का लोकसभा चुनाव सपा ने बसपा के साथ गठबंधन करके लड़ा था। सपा अपनी ताकत बढ़ाने में तो कामयाब नहीं हुई थी, लेकिन अपने घटक को लोकसभा में शून्य से दस सीट तक पहुंचाने में सफल रही थी। जिससे सत्तारूढ़ भाजपा गठबंधन को सूबे में दस सीट का नुकसान हुआ था। विधानसभा चुनाव में सपा ने नये जातिगत और सामाजिक समीकरण बनाएं और इसका पार्टी को लाभ मिला है। जिसे लेकर पार्टी उत्साहित है। विधानसभा चुनाव में सपा ने तृणमूल कांग्रेस प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी का समर्थन हासिल किया था और दोनों दलों ने पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में  एकजुट होकर 2024 में केंद्र की भाजपा सरकार को सत्ता से बेदखल करने का संकल्प लिया था। वाराणसी रैली में ममता बेनर्जी ने जनता के बीच गेंद फैंक कर चुनाव प्रचार अभियान की शुरूआत की थी। उस दिशा में सपा कदम बढ़ाती नज़र आ रही है।

 

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