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(सुरेन्द्र सुकुमार): असल्लाहमालेकुम दोस्तो ! अगले तीन दिन हम ख़ानक़ाह नहीं जा पाए, फिर जब गए तो हुज़ूर साहब कुछ गम्भीर मुद्रा में दिखे। सलाम करके बैठ गए। रोज की ही तरह उन्होंने ख़ादिम को आवाज़ लगाई, ‘मियाँ चाय लाइए, जनाब सुकुमार साहब तशरीफ़ फरमा हैं।' हमने चाय पी... फिर उन्होंने पान लगाया... "लीजिए नोश फ़रमाइए।" हमने सलाम करके पान मुंह में रख लिया। फिर हमने पूछा कि हुज़ूर साहब आपके दुश्मनों की तबियत कुछ नाशज़ लग रही है? तो बोले, "मियाँ हमारा तो कोई दुश्मन ही नहीं है, हाँ हमारी तबियत जरूर कुछ नाशाज़ है। लगता है कि जाने का बख़्त क़रीब आ गया है।" हमने कहा ऐसा नहीं कहिए हुज़ूर साहब। तो बोले, "जो आया है, वो तो जाएगा ही। देर सबेर से ही सही"... हाँ तो उस दिन हम हज़रत निजामुद्दीन औलिया की बात कर रहे थे।

औलिया कहा करते थे कि हज़्ज़ उम्रह से बेहतर है, ग़रीब गुरबाह की मदद करना, उन्हें खाना खिलाना, उनकी बीमारी में तीमारदारी करना, वो ऐसा करते भी थे इस वज़ह से कट्टर इस्लामी उनके बहुत से ख़िलाफ़ हो गए थे। पर इससे उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। वो मुतबातिर अपने काम में लगे रहे।

उनके मुरीद दिन प्रति दिन बढ़ने लगे... उनके चाहने वाले बढ़ते ही रहे। 92 वें वर्ष में वो इबादत करते करते अल्लाह को प्यारे हो गए। जब उन्होंने देह छोड़ी, उस बख़्त अमीर खुसरो दिल्ली में नहीं थे। छः महीने बाद जब वो दिल्ली आए, तो यह ख़बर पाकर सन्न रह गए और रोते बिलखते हुए उनकी मज़ार पर पहुंचे और रो रो कर बुरा हाल कर लिया और मुतबातिर पाँच महीने तक मज़र से लिपट कर रोते रहे और अंत में एक दोहा कहा....

गोरी सोई सेज पर मुख पर डारे केश।

चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुं देश।।

और प्राण त्याग दिए। दिल्ली के निजामुद्दीन में औलिया की मज़ार के सामने ही अमीर खुसरो की भी मज़ार बनी है। आज भी उनकी याद में साल में दो बार वहाँ उर्स लगता है।

आज इतना ही, सबको नमन

शेष कल

नोटः क्रांतिकारी, लेखक, कवि, शायर और आध्यात्मिक व्यक्तित्व सुरेंद्र सुकुमार जी, 1970 के दशक में वामपंथी विचारधारा से प्रभावित थे। लेकिन ओशो समेत अन्य कई संतों की संगत में आकर आध्यात्म की ओर आकर्षित हुए और ध्यान साधना का मार्ग अख्तियार किया। उनकी आध्यात्मिक यात्रा से जुड़े संस्मरण "जनादेश" आप पाठकों के लिए पेश कर रहा है।

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