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(सुरेन्द्र सुकुमार): असल्लाहमालेकुम दोस्तो ! अब तो हमारा यह हाल हो गया था कि जब भी हम कानपुर नितेश्वर आश्रम जाते तो हुज़ूर साहब की ख़ानक़ाह ज़रूर जाते। इस बार भी ऐसा ही हुआ जैसे ही हम पहुंचे उन्होंने गर्मजोशी से इस्तक़बाल किया, ‘‘आइए, मियाँ सुकुमार साहब... तशरीफ़ रखिए... लीजिए पान नोश फरमाइए।‘‘ हमने पान लिया और झुक कर सलाम किया। फिर वो बोले, ‘‘मियाँ कुछ नया कहा है क्या?‘‘ हमने कहा, जी हुज़ूर साहब एक ग़ज़ल हुई है रूहानी सी। तो बोले, ष्‘अरे वाह, तो फिर देर किस बात की... सुनाइए... और हाँ तरन्नुम से सुनाइए।‘ हमने कहा कि हुज़ूर साहब हमारा तरन्नुम बहुत अच्छा नहीं है। तो बोले, ‘तो क्या हुआ? कौन सा मुशायरे में सुना रहे हैं। हमने सुनाना शुरू किया...

पियक्कड़ों की यह महफ़िल है यहाँ सम्भल के आना जी,
जो भी आए सुनो यहाँ पर हो जाए मस्ताना जी।

मैं तुलसी का भक्त हूँ प्यारे कबिरा का दीवाना जी,
एक जगह धूनी है रमाई कहीं न आनाजाना जी।

मछली चढ़ी पेड़ के ऊपर अम्बर धरती पर आया,
कहँ कबीर अचरज में भर के सागर बूँद समाना जी।

रो रो के मैं चीख रहा हूँ कोई नहीं सुनने वाला,
कब आओगे कब आओगे भेज रहा परवाना जी।

मैं साक़ी हूँ मैं ही सागर मैं ही रिंद सुनो प्यारे,
मैं मयखाना मैं दीवाना मैं ही खुद पैमाना जी।

पीनेवालो देर करो मत महफ़िल सजी हुई प्यारे,
बिन पैसों के खूब लुट रही भरा हुआ मयखाना जी।

तुम भी आओ तुम भी आओ यारों को भी ले आओ,
झूमझूमके खूब पिओ तुम कोई नहीं अनजाना जी।

यहाँ ख़ुमारी में सब प्यारे आँखें बंद किए बैठे,
सब बंदे हैं उसी एक के उसने ना पहचाना जी।

यहाँ न रोज़ा कोई रखता न कोई उपवास करे,
कैसी नवदुर्गा शिवरात्रि कैसा है रमजाना जी।

इस महफ़िल में सभी होश में कोई भी बेहोश नहीं,
सबके पास में रब का भइया भरा हुआ खजाना जी।

जो भी आए रब की खोज में उसको तू तस्बीह देना,
दुनियाँ एक सराय उसको उसमें न ठहराना जी।

खुद में तैरो खुद में डुबो खुद की करो इबादत जी,
खुदमें खेलो खुद में जीलो खुद पर ही मर जना जी।

तुम निराकार हो तुम अकार हो तुम अद्वैत तुम द्वैत भी हो,
तुम ही तो ब्रह्म सुनो तुम कोई नहीं भगवाना जी।

सत्य की खातिर मरजाओ तुम जान हथेली पे रख लो,
चाहे राजा कुंवर साहब हो चाहे हो वो राना जी।

कविता का तब जन्म हुआ था बाल्मीकि ने मारा तीर,
क्रोंच गिरा धरती पे आकर था चूका नहीं निशाना जी।

दुःखी हो गए बाल्मीकि तब आँखों में आँसू आए,
रो रो कर कुछ कह डाला कविता बनी कुराना जी।

उसके इश्क में डूब के लिक्खी गर्दन तक पानी आया
इसीलिए तो यारो रंगत होगई है सूफियाना जी।

खट खट खट खट करघा करता रुई और धागा भी है,
कबिरा एक जुलाहा बुनता रब का ताना बाना जी।

मैं ही तथागत मैं ही महावीर मैं ही तो हूँ नानक देव,
मैं ईसा हूँ मैं मूसा हूँ मैं ही खुद रहिमाना जी।

मैं कबिरा हूँ मैं दादू हूँ मैं संत रैदासा हूँ,
मैं ही नानक देव सुनो तुम मैं ही तो रसखाना जी।

मैं ही रामकृष्ण रमणा हूँ मैं ही हूँ जे कृष्णा मूर्ति
मैं ओशो हूँ मैं हँसा हूँ मुझको भूल न जाना जी।

ग़ज़ल सुनते सुनते उन्होंने अपनी आँखें बंद कर लीं और डूब गए, किसी और दुनियाँ में। ग़ज़ल सुनने के बाद वो झूम उठे, ‘अरे वाह वाह वाह... माशाअल्लाह... क्या कह दिया है आपने। ये हुई न कोई बात। वाह वाह वाह क्या बात है और उठ कर हमारे हाथों को चूमने लगे। वहाँ बैठे मुरीदों ने भी जम कर दाद दी।
समय समाप्त हो गया था, हम सलाम करके चले आए।

आज इतना ही, सबको नमन (शेष कल)

नोटः क्रांतिकारी, लेखक, कवि, शायर और आध्यात्मिक व्यक्तित्व सुरेंद्र सुकुमार जी, 1970 के दशक में वामपंथी विचारधारा से प्रभावित थे। लेकिन ओशो समेत अन्य कई संतों की संगत में आकर आध्यात्म की ओर आकर्षित हुए और ध्यान साधना का मार्ग अख्तियार किया। उनकी आध्यात्मिक यात्रा से जुड़े संस्मरण "जनादेश" आप पाठकों के लिए पेश कर रहा है।

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