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(सुरेन्द्र सुकुमार): असल्लाहमालेकुम दोस्तो ! अगले दिन हम फिर ख़ानक़ाह पहुंचे। हमेशा की तरह नशिस्त जमी हुई थी, हुज़ूर साहब बैठे हुए पान चबा रहे थे। हमें देख कर मुस्कुराए, "आइए मियाँ सुकुमार साहब मौज़ में हैं।"‘ जी हुज़ूर साहब, आपकी इनायत है। बोले, "नहीं मियाँ अल्लाह का क़रम है, कल तो आपने कमाल का सुनाया और बताइए इबादत कैसी चल रही है।" हमने कहा कि आपका और महाराज जी का हाथ सर पर है, तो सही ही चलेगी।

मुस्कुराए... ख़ादिम को आवाज़ दी, "मियाँ सुकुमार साहब के लिए चाय लाइए।" चाय आई। फिर हमने चाय पी, उसके बाद उन्होंने अपने हाथ से पान लगाया और बोले, "लीजिए मियाँ नोश फ़रमाइए।" हमने पान हाथ में लेकर सलाम किया और पान मुंह में रख लिया।

हमें बचपन से ही यह सिखाया गया था कि जब कभी भी कोई अपने से बड़ा कुछ पेश करे तो उसे सलाम करना चाहिए। थोड़ी देर बाद हमने पूछा कि हज़ूर साहब सूफ़ीवाद कबसे शुरू हुआ? तो बोले, "सूफ़ीइज़्म इस्लाम की एक रहस्यमयी धारा है।

आगे बोले, हम यह मानते हैं कि न तो नमाज़ पढ़ने से कुछ होता है और न मक्का मदीना जाने से कुछ होता है। बस सादा जीवन सच्चे मन से अल्लाह की इबादत से भी सब होता है।" यों तो सूफ़ीइज़्म कब और कहाँ से शुरू हुआ? इसके बारे में मुख़्तलिफ़ ख़यालात हैं। पर ज्यादातर लोग मानते हैं कि ये हज़रत मंसूर और हज़रत राबिया से शुरू हुआ। हज़रत मंसूर को जब इलहाम हुआ तो वो ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगे अनहलहक़ अनअलहक़ यानि कि मैं वही हूँ। जैसे वेदांत में जिसको भी इलहाम होता है, तो वो कहता है कि अहम्ब्रहासमि यानि कि मैं ही ब्रह्म हूँ।

तो जब हज़रत मंसूर ने ज़ोर ज़ोर से फ़रमाया... अनअलहक़... तो उनके उस्ताद ने कहा, मुझे भी मालूम है, पर मैंने किसी से भी नहीं कहा तू भी मत कह नहीं तो ये पागल लोग तुझे पत्थर मार मार कर मार डालेंगे। तो हज़रत मंसूर ने कहा कि मैं क्या करूँ? मैं अपने आप नहीं कह रहा हूँ, ये तो निकल रहा है। मैं कैसे रोकूँ और फिर वही हुआ जिसका डर था। उनको लोगों की भीड़ पत्थर मारने लगी। वो लहूलुहान होते रहे पर मुतवातिर अनअलहक़ कहते रहे। उसी भीड़ में से उनके उस्ताद ने भी एक फूल उनकी ओर उछाल दिया और भरी आँखों से वहाँ से रुख़सत हो गए और हज़रत मंसूर अनअल हक़ अनअलहक़ कहते कहते अल्लाह को प्यारे हो गए। जैसे सनातन धर्म में आत्मा का मिलन परमात्मा से होता है। वैसे ही सूफ़ीइज़्म में रूह का मिलन अल्लाह ताला से होता है। एक तरह से देखा जाए, तो सूफ़ीइज़्म सनातन धर्म के क़रीब है।

समय समाप्त हो गया था। हम सलाम करके चले आए। चलते चलते उन्होंने बताया कि ‘‘मियाँ कल फिर आइएगा... ख़ुदाहाफिज़।‘‘

आज इतना ही, सबको नमन
शेष कल

नोटः क्रांतिकारी, लेखक, कवि, शायर और आध्यात्मिक व्यक्तित्व सुरेंद्र सुकुमार जी, 1970 के दशक में वामपंथी विचारधारा से प्रभावित थे। लेकिन ओशो समेत अन्य कई संतों की संगत में आकर आध्यात्म की ओर आकर्षित हुए और ध्यान साधना का मार्ग अख्तियार किया। उनकी आध्यात्मिक यात्रा से जुड़े संस्मरण "जनादेश" आप पाठकों के लिए पेश कर रहा है।

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