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(सुरेन्द्र सुकुमार): असल्लाहमालेकुम दोस्तो ! अब तो हमारा यह आलम हो गया था कि जब भी हम कानपुर श्री सूरज मुनि महाराज जी के नितेश्वर आश्रम जाते, रात को एक बजे आश्रम की जीप से हुज़ूर साहब की ख़ानक़ाह ज़रूर जाते। वहाँ तो नशिस्त जमी रहती थी, हमें देखते ही मुस्कुरा कर हमारा इस्तक़बाल करते, ‘‘आइए ज़नाब सुकुमार जी तशरीफ़ रखिए, महाराज जी के पास से आ रहे होंगे, कैसे हैं महाराज जी?‘‘ हम बैठ जाते और कहते महाराज जी ठीक हैं। हमने कहा कि महाराज जी भी आपके बारे में पूछते रहते हैं... आप लोग एक दूसरे को नाम से जानते हैं... पर कभी मिले नहीं हैं। एक बार आप मिल लीजिए। तो बोले, "खुद से तो रोज़ ही मिलते हैं, हम ही तो महाराज जी हैं।" कह कर मुस्कुरा दिए, हम समझ गए थे कि वो क्या कह रहे हैं।

एक दिन यही बात हमने महाराज जी से कही थी, तो वो भी बोले थे, "लला हमईं तो हुज़ूर साहब हैं।" बात ख़त्म हो गई थी। चाय पीने के बाद पान खाया फिर बोले, "कुछ नया कहा है क्या?" हमने कहा हुज़ूर साहब अब तो लिखने-पढ़ने से ज्यादा इबादत में मज़ा आता है।

तो मुस्कुरा कर बोले, "अल्लाह की मेहरबानी है आपके ऊपर, ऐसा ही होता है जब इश्क़ मज़ाजी, इश्क़ हक़ीक़ी में बदलता है। तो मज़ा सौ गुना बढ़ जाता है पर कोई बात नहीं अब उसी महबूब के लिए गज़लें कहिए।" रोइए, गाइए, नांचिए, झूमिंए... और उन्होंने आँखें बंद कर लीं और डूब गए। थोड़ी देर बाद आँखें खोली तो आँखें सुर्ख थीं... हल्के से आँसू बह रहे थे।

हमने पूछा कि हुज़ूर साहब कबीर दास जी के बारे में आपके क्या ख़्याल हैं? तो बोले, ‘‘कबीर साहब तो सूफ़ी फ़क़ीर थे, वो तो अल्लाह को अपना मालिक समझते थे.. वो कहते हैं...

जिन खोजा तिन पाइंया गहरे पानी पैठ,

मैं बौरी बूढ़न डरी रही किनारे बैठ।

इससे यह ज़ाहिर होता है कि वो अल्लाह को अपना महबूब मानते हैं और खुद को उनकी माशूका... कबीर साहब तो पार हो चुके थे।

समय समाप्त हो गया था, हमने झुक कर नमन किया और चले आए।
आज इतना ही, सबको नमन, शेष कल

नोटः क्रांतिकारी, लेखक, कवि, शायर और आध्यात्मिक व्यक्तित्व सुरेंद्र सुकुमार जी, 1970 के दशक में वामपंथी विचारधारा से प्रभावित थे। लेकिन ओशो समेत अन्य कई संतों की संगत में आकर आध्यात्म की ओर आकर्षित हुए और ध्यान साधना का मार्ग अख्तियार किया। उनकी आध्यात्मिक यात्रा से जुड़े संस्मरण "जनादेश" आप पाठकों के लिए पेश कर रहा है।

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