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(धर्मपाल धनखड़): डेढ़ महीने से ज्यादा समय से मणिपुर जल रहा है। अब तक 115 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। 50 हजार से ज्यादा लोग अस्थाई शिविरों में शरण लिये हुए हैं। बड़ी संख्या में सरकारी और निजी संपतियां आग में स्वाह कर दी गयी। यहां तक कि केंद्रीय मंत्री और बीजेपी नेताओं के घरों को भी आग के हवाले किया जा रहा है। प्रदेश के 11 जिलों में कर्फ्यू लगा है। उपद्रवियों को देखते ही गोली मारने के आदेश सुरक्षा बलों को दिये गये हैं। सेना और केंद्रीय सुरक्षा बल तैनात हैं। फिर भी राज्य सरकार हिंसा रोकने में बुरी तरह विफल रही है। ना केवल विफल रही है, बल्कि प्रदेश के दोनों बड़े समुदायों का विश्वास खो चुकी है।

कुकी समुदाय प्रदेश सरकार की नीतियों को ही वर्तमान हालात के लिए जिम्मेदार मानता है। वहीं मैतेई समुदाय जिसने चुनाव में बीजेपी को एकजुट समर्थन दिया था। उनका कहना है कि राज्य सरकार उन्हें सुरक्षा देने में नाकाम रही है। ऐसे में दोनों समुदाय शांति बहाली के लिए केंद्र की ओर देख रहे हैं। लेकिन केंद्र सरकार अपने खास अंदाज में घटनाक्रम पर पैनी नजर रखें हुए हैं।

मेरीकाम जैसी अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त खिलाड़ी की मणिपुर को बचाने की अपील को भी अनसुना कर दिया गया। तीन मई को जब हिंसा भड़की तो केंद्र सरकार कर्नाटक के चुनाव में व्यस्त थी। उसके बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 14 मई को मुख्यमंत्री बीरेन सिंह से हालात की जानकारी ली। 28 मई से एक जुलाई तक शाह मणिपुर में रहे। सभी गुटों से बातचीत की और शांति बहाली की अपील की। लेकिन गृहमंत्री की अपील के बीस दिन बाद भी हिंसा और आगजनी जारी है। अब तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी मणिपुर की घटनाओं पर चिंता जाहिर कर चुका है। संघ ने केंद्र से शांति बहाल करने की मांग भी की है। साथ ही दोनों समुदायों में विश्वास बहाली के लिए बनवासी कल्याण परिषद को सक्रिय किया है। आर एस एस की शांति की अपील पर कांग्रेस ने सवाल उठाये हैं। कांग्रेस ने आरोप लगाया कि संघ के कारण ही मणिपुर की विविधता की प्रकृति बदल रही है।

मैदान और पहाड़ के निवासियों के बीच टकराव बढ़ रहा है। कुकी समुदाय पहाड़ी क्षेत्र में बसा है और मैतेई इंफाल घाटी में। राज्य की 90 फीसदी जमीन 40 फीसदी कुकी जनजातियों के पास है। वहीं 53 फीसदी मैतेई समुदाय के पास दस फीसदी जमीन है‌, वो भी केवल घाटी के पांच जिलों में। मैतेई समुदाय 2012 से एसटी का दर्जा दिये जाने की मांग करता आ रहा है। इसके विपरीत कुकी समुदाय पिछली सदी के नब्बे के दशक से अपने लिए अलग और स्वायत्त प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित करने की मांग करता रहा है।

मौजूदा समय में मणिपुर विधानसभा में 10 जनजातीय विधायक हैं, जिनमें से सात भाजपा के हैं। वे भी अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के समझाने-बुझाने के बाद भी ये विधायक अपनी मांगों पर अड़े हुए हैं। ये बात भी काबिले गौर है कि जनजातियों के 10 में से 5 विधायक महीनों से मिजोरम में डटे हुए हैं। वहां वे सबसे ताकतवर स्टूडेंट यूनियन मिजो जिरलोई पाॅल के साथ बात कर रहे हैं। आपको बता दें कि मिज़ो और कुकी जनजातियों की पहचान साझा है। ऐसे में यदि मणिपुर में भड़की आग, सीमा पार करके मिज़ोरम में दाखिल हो जाती है, तो हालात और खराब हो सकते हैं। चीन और म्यांमार की सीमा से लगते इन राज्यों में अशांति राष्ट्रीय चिंता का विषय है।

हालिया हिंसा की शुरुआत मणिपुर हाईकोर्ट के उस फैसले के बाद हुई है, जिसमें मैतेई समाज को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की वकालत की गई। आरक्षण को लेकर नाराजगी तो यहां की सभी जनजातियों होनी चाहिए थी। लेकिन अन्य जनजातियां इस पूरे मामले से अलग-थलग रही? इससे साफ है कि आरक्षण तो एक बहाना है। यहां वनांचलों में अफीम की खेती, मादक द्रव्यों का बढ़ता कारोबार और सीमापार से बढ़ती घुसपैठ जैसे ज्वलंत मुद्दे भी हैं। ड्रग के कारोबार को स्वाभाविक रूप से राजनीतिक और सरकारी तंत्र का संरक्षण होता है। मौजूदा सरकार इसके खिलाफ अभियान चला रही है। इससे ड्रग माफियाओं और उनके सशस्त्र विद्रोही संगठनों में खासा आक्रोश है।

पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने मणिपुर के 11 पर्वतीय जिलों का मैदानी भाग की तरह पूर्ण विकास करने का वादा किया था। लेकिन इस दिशा में बीरेन सरकार एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाई है। पर्वतीय जनपदों में विकास नहीं होने से इनमें खासा रोष है। जनजाति विधायकों का आरोप है कि सरकार ने खानापूर्ति के लिए ऑटोनॉमस हिल काउंसिल का गठन जरूर किया है। लेकिन सारी शक्तियां डिप्टी कमिश्नर के हाथ में है। ऐसे में सीधे तौर पर उनके हितों की अनदेखी हो रही है। जनजातीय विधायक उनकी समस्या का निदान असम की बोडो समस्या की तरह ही चाहते हैं जिसमें ऑटोनॉमस हिल काउंसिल को ज्यादा अधिकार मिलें और उनके क्षेत्रों का विकास अच्छी तरह हो सके।

बहरहाल, शांति बहाली के लिए धर्मनिरपेक्ष और संवैधानिक शासन की आवश्यकता है, जो जाति और जनजाति हितों की रक्षा करने में सक्षम हो। केंद्र सरकार को राजनीतिक तरीके से सर्वसम्मत समाधान खोजने होंगे। इसके लिए यदि मणिपुर में मुख्यमंत्री भी बदलना पड़े, तो बदल देना चाहिए। मणिपुर के हालात इतने ज्यादा खराब हो चुके हैं कि राष्ट्रपति शासन की मांग भी अब न केवल घाटी, बल्कि पर्वतीय जिलों में भी उठने लगी है। केंद्र की ओर से राज्यपाल की अध्यक्षता में बनायी गयी शांति कमेटी भी कुछ खास नहीं कर पा रही हैं। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा भी शांति मिशन में लगे हैं। लेकिन परिणाम अनुकूल नहीं आ रहे हैं। इसके लिए दलगत राजनीति से उपर उठकर सभी राजनीतिक दलों को सामाजिक संगठनों के साथ आगे आना होगा।

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