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(आशु सक्सेना): राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) को संभवत: इस हकीक़त का एहसास हो गया है कि मंदिर-मसजिद मुद्दे की अति चुनावी राजनीति में नुकसान का सौदा हो सकता है। जो कि आरएसएस के मिशन-2024' में बाधक होगा। आरएसएस को आशंका है कि जातिगत धुव्रीकरण के दौर में सांप्रदायिक सौहार्द बिगडने का चुनावी फायदा भाजपा विरोधी ताकतों को मिल सकता है। यही वजह है कि आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने नागपुर में आरएसएस कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण कार्यक्रम के समापन समारोह को संबोधित करते हुए इस मुद्दे पर कुछ हिंदू संगठनों की निंदा की। साथ ही आरएसएस प्रमुख भागवत ने ज्ञानवापी मस्जिद-काशी विश्वनाथ मंदिर और मथुरा ईदगाह समेत देश अन्य जगहों पर उठ रहे ऐसे विवादों को लेकर बड़ा बयान दिया।

उन्होंने कुछ हिन्दू संगठनों का ज़िक्र करते हुए कहा कि हर दूसरे दिन मस्जिद-मंदिर विवादों को उठाना और विवाद पैदा करना अनुचित है। इन मुद्दों के सौहार्दपूर्ण समाधान की जरूरत है। दोनों पक्षों को एक साथ बैठकर शांति से एक-दूसरे से बात करनी चाहिए। यदि आवश्यक हो तो अदालत के फैसले को स्वीकार करें।

भागवत ने बड़ा एलान किया कि संघ कोई और मंदिर आंदोलन नहीं करेगा। आरएसएस प्रमुख ने कहा कि हर दूसरे दिन मस्जिद-मंदिर विवादों पर विद्वेष फैलाना और विवाद पैदा करना अनुचित है। इससे बेहतर है, मुस्लिम भाइयों के साथ बैठकर विवादों को सुलझाया जाए।

सर्वविदित है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) भले ही 15 अगस्त 1947 तक भारत की आज़ादी के पक्ष में नहीं था। लेकिन आज़ाद भारत के पहले चुनाव से पहले ही आरएसएस ने अपनी राजनीतिक शाखा 'भारतीय जनसंघ' का गठन कर लिया था। 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनसंघ ने हिंदुत्व के नारे पर अपनी किस्मत आजमाई थी। उस चुनाव में संघ की राजनीतिक शाखा भारतीय जनसंघ को तीन सीट हासिल हुई थी। संघ की राजनीतिक शाखा का सफर तीन से शुरू होकर 72 साल बाद 2019 में 303 सीट पर परचम लहराने की यात्रा तय कर चुका है। इसे भारतीय लोकतंत्र की खुबसूरती ही कहा जाएगा कि अंग्रेजों से देश की आज़ादी की खुली मुखालफत करने वाले संगठन की राजनीतिक शाखा अब भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार इस वर्ष भारत की आज़ादी की 75 वीं सालगिरह को 'आज़ादी का अमृत उत्सव' के तौर पर मना रही है। जाहिरनातौर पर संघ यानि आरएसएस अपनी स्थापना के 100वें वर्ष में भी अपनी राजनीतिक शाखा को देश की सत्ता पर काबिज देखना चाहेगा। उस दिशा में संघ प्रमुख मोहन भागवत पैनी निगाह रखे हुए हैं। संभवत: उन्हें यह एहसास हो गया है कि मंदिर-मसजिद मुद्दे की अति हिंदू गोलबंदी के विपरित जा सकती है।

हिंदी भाषी प्रदेश बिहार की नीतीश कुमार सरकार की केबिनेट ने 'जातिगत जनगणना' को मंजूरी दे दी है। नीतीश सरकार ने इस प्रस्ताव को पहले सर्वदलीय बैठक में मंजूर करवाया था। केबिनेट ने इसके लिए पांच सौ करोड़ रूपये भी आवंटित किये है। सूबे की डबल इंजन की सरकार का एक इंजन यानि भाजपा इस प्रस्ताव के पक्ष में नहीं थी। लेकिन इस मुद्दे पर सूबे में अलग-थलग पड़ने के डर से अंतत: इस प्रस्ताव पर सहमति दी है। दरअसल, आरएसएस 'जातिगत जनगणना' के पक्ष में नहीं है। बहरहाल, भाजपा के सहयोगी जनतादल यूनाइटेड (जेडीयू) ने पिछड़ा कार्ड खेल दिया है। आरएसएस को एहसास हो गया है कि पिछड़ों की गोलबंदी मंदिर-मसजिद को ज़्यादा तूल देने पर भाजपा के खिलाफ हो सकती है।

आरएसएस ने अपनी स्थापना के 100 वर्ष पूरे होने से पहले अपनी राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को 2019 लोकसभा चुनाव का सेमी फाइनल जीता कर संसदीय लोकतंत्र के फाइनल चुनावी मुकाबले में धमाकेदार प्रवेश किया है। 2022 में भारत की आज़ादी के तो 75 साल होंगे। जबकि 2024 में आरएसएस की स्थापना का 100वां साल चल रहा होगा। लिहाजा 2024 का लोकसभा चुनाव आरएसएस के लिए बीते लोकसभा चुनाव से ज्यादा महत्वपूर्ण है।

पीएम मोदी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में लगातार दूसरी बार अपने बूते पर बहुमत हासिल करते हुए तीन सौ का आंकड़ा पार करके संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में निश्चित ही मतबूत दावेदारी की है। लेकिन मोदी सरकार-02 को फाइनल चुनावी मुकाबले में उतरने से पहले खुद को साबित करना होगा। इसके लिए सरकार की नीतियों के साथ हिंदु मतों का धुव्रीकरण बरकरार रहना ज़रूरी है। लेकिन हिंदी भाषी प्रदेशों में जातिगत जनगणना के मुद्दे ने पिछड़ों की गोलबंदी शुरू ​हो गयी है। इसका 2024 के लोकसभा चुनाव पर क्या असर होगा, यह फिलहाल भविष्यवाणी करना संभव नहीं है। लेकिन यह तय है कि पिछड़े मतों का धुव्रीकरण 2024 के चुनावी नतीज़ों को इस बार भी प्रभावित करेंगे। सवाल यह है कि पीएम मोदी 2014 और 2019 की तरह पिछड़े मतों के समर्थन को बरकरार रख पाते हैं या 2024 के चुनाव में यह वर्ग पीएम मोदी से छिटकता है।

आपको याद दिला दें कि 2013 में जब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री प्रत्याशी घोषित किया था। उसके तुरंत बाद अपने पहले भाषण में पीएम मोदी ने खुद को पिछड़े वर्ग का प्रत्याशी घोषित किया और इसका उन्हें चुनाव में फायदा हुआ। 2014 के चुनाव में इस पिछड़े कार्ड का असर मंडल का कमंडल के साथ तालमेल रहा और पीएम मोदी ने हिंदी भाषी प्रदेशों के पिछड़े वर्ग को पूरी तरह आकर्षित करने में सफलता हासिल की। इस पिछड़ा कार्ड पर पीएम मोदी को तीसरे चुनाव का सामना करना है। इस चुनाव में यह कार्ड पूरी तरह पीएम मोदी के पक्ष में नज़र नहीं आ रहा है। यहीं वजह है कि आरएसएस ने मसजिद मंदिर मुद्दे से खुद को अलग करके यह संदेश दिया है कि सरकार को सब वर्गों को खुश करने की ओर ध्यान देना होगा। सिर्फ सांप्रदायिक धुव्रीकरण से इस बार वैतरणी पार होना मुश्किल है।

यूं आरएसएस की सीएम मोदी के साथ मतभेद की चर्चा के बावजूद आरएसएस ने 2013 में भाजपा के पीएम उम्मीदवार के तौर पर मोदी का समर्थन किया था। संसदीय इतिहास में मोदी भाजपा में एक कट्टर हिंदू नेता की छवि हासिल कर चुके थे। दरअसल, आरएसएस ने पीएम मोदी की इसी छवि के आधार पर दो चुनाव में हिंदू मतों के धुव्रीकरण में सफलता हासिल की है। लेकिन मंदिर-मसजिद मुद्दे की अति से इस धुव्रीकरण में विखराव संभव है और जिसका नुकसान 2024 के चुनाव में भाजपा को होना तय है।

दिलचस्प पहलू यह है कि 27 सितंबर 1925 में आरएसएस का गठन अंग्रेज़ों के खिलाफ नहीं बल्कि मुसलमानों से मुकाबला करने के लिए किया गया था। आज़ाद भारत के 75वें साल में उसी आरएसएस के प्रमुख भागवत ने कहा कि हर दूसरे दिन मस्जिद-मंदिर विवादों पर विद्वेष फैलाना और विवाद पैदा करना अनुचित है। इससे बेहतर है, मुस्लिम भाइयों के साथ बैठकर विवादों को सुलझाया जाए।

काशी-ज्ञानवापी मसजिद का जिक्र किए बगैर उन्होंने मसजिद में हाल में हुए सर्वेक्षण की ओर इशारा करते हुए कहा कि हिंदू हो या मुसलमान इस मुद्दे पर ऐतिहासिक हकीकत और तथ्यों को स्वीकार करें। यह दोहराते हुए कि प्राचीन भारत में मुसलमानों के पूर्वज हिंदू थे और एक अलग धार्मिक पद्धति का पालन करते थे। हिंदुओं ने अखंड भारत के विभाजन को स्वीकार कर लिया था और एक मुस्लिम देश पाकिस्तान के लिए मार्ग प्रशस्त किया था। मोहन भागवत ने कहा कि इसका मतलब है कि बड़ी संख्या में मुसलमान जो भारत में रह गए और पाकिस्तान को नहीं चुना, वे हमारे भाई हैं।

दरअसल, आरएसएस का मुसलिम समुदाय के प्रति यह नरम रूख हिंदू खासकर पिछड़ों के मतों के विभाजन को रोकने की रणनीति है। आरएसएस को डर यह है कि बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने राज्य स्तर पर जातिगत जनगणना का काम शुरू कर दिया है। उत्तर प्रदेश के प्रमुख विपक्षी दल समाजवादी पार्टी ने अपने विधानसभा चुनाव घोषणा पत्र में जातिगत जनगणना करवाने का वादा किया था। इन दोनों राज्यों में पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच पिछड़े वर्ग के ज्यादातर समुदायों को अपने साथ जोड़ने की होड़ लगी हुई है। यह तय है कि 2024 की लोकसभा की अंकगणित इन दोनों राज्यों के चुनाव नतीजों से तय होगी।

उत्तर प्रदेश और बिहार की 120 संसदीय सीट के चुनाव नतीजों से 2024 की सरकार का फैसला होगा। फिलहाल दोनों राज्यों में पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों ही पिछड़ों की गोलबंदी का कार्ड खेल रहे है। ऐसे में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने पिछडों के विभाजन को रोकने की रणनीति के तहत मंदिर-मसजिद मुद्दे से खुद को दूर कर लिया है। यह बात दीगर है कि राम मंदिर मुद्दे से काफी पहले काशी की ज्ञानवापी मसजिद और मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि ईदगाह मसजिद विवाद का मुद्दा आरएसएस के पुराने एजेंड़े में शामिल रहे हैं। संघ की एक प्रतिनिधि सभा की बैठक में 1959 में इस संबंध में प्रस्ताव पारित हुआ था। जिसमें दोनों को पूर्व की स्थिति में लाने का संकल्प लिया गया था। हांलाकि 2019 में राम मंदिर बाबरी मसजिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसला स्वागत करते हुए भी भागवत ने भविष्य में ऐसे विवादों से दूर रहने का एलान किया था।

बहरहाल, देश के बदले सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य के मद्देनज़र आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने सत्तारूढ़ भाजपा को सचेत कर दिया है। आरएसएस के इस संदेश के बाद निश्चित ही भाजपा की रणनीति में भी बदलाव नज़र आएगा। फिलहाल यह कहना संभव नहीं की 2024 में पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच जारी मंथन में अमृत किसके हाथ लगेगा। लेकिन आरएसएस ने सत्तारूढ़ भाजपा को सचेत कर दिया है। इसका भाजपा को कितना चुनावी फायदा हुआ, यह तो 2024 के चुनाव नतीज़ों के बाद ही तय होगा।

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