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(आशु सक्सेना): आज़ादी के अमृत उत्सव के दौरान उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पांच चरण का मतदान हो चुका है। आज छठे चरण का मतदान होना है। पिछले पांच चरण के मतदान के दौरान राजनीतिक पंडित इस बात पर जोर देते रहे हैं कि पच्छिमी उत्तर प्रदेश में पहले दो दौर के मतदान के दौरान 'किसान आंदोलन' के चलते जाटों की नाराजगी भाजपा को इसलिए नुकसान पहुंचा रही है, क्योंकि यहां मुसलमानों ने इस क्षेत्र में एकजुट होकर 'गठबंधन' के पक्ष में मतदान किया है।

राजनीतिक पंडित यह ज्ञान भी दे रहे हैं कि तीसरे दौर से भाजपा की स्थिति में सुधार हुआ है और भाजपा बहुमत का जादुई आंकड़ा अपने सहयोगियों के समर्थन से हासिल कर लेगी। क्योंकि इसके बाद के चरणों में मुसलमान एकजुट होकर हिंदूवादी पार्टी भाजपा को शिकस्त देने की स्थिति में नहीं है, लिहाजा हिंदू मतों का विभाजन भाजपा को जीत दर्ज करवा देगा। 2014 के बाद संपन्न हुए लोकसभा और विधानसभा चुनावों पर निगाह डालें, तो इन चुनावों के नतीजों में यह साफ नज़र आता है कि जहां भी हिंदु मतों का बहुमत भाजपा के खिलाफ खड़ा हुआ, वहां भाजपा को शिकस्त का सामना करना पड़ा है।

2019 के लोकसभा चुनाव के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 'डबल इंजन की सरकार' के नारे पर सबसे पहले भाजपा ने महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के चुनावों का सामना किया। इस चुनाव में पीएम मोदी की लोकप्रियता में हुए हिजाफे को भाजपा अपनी जीत मान रही थी। लेकिन पीएम मोदी के चेहरे पर वोट मांगने के बावजूद भाजपा अपने बूते पर बहुमत के आंकड़े तक नहीं पहुंच सकी थी। हरियाणा में भाजपा को नाटकीय उठापटक के बाद सूबे की एक परिवारवादी क्षेत्रीय पार्टी के एक विभाजित खेमें से हाथ मिला कर सत्ता में बमुश्किल वापसी मिली, वहीं इस चुनाव में महाराष्ट्र् में हिंदूवादी पार्टी 'शिवसेना' से गठबंधन के बावजूद भाजपा अपने पुराने आंकड़े को बरकरार नहीं रही सकी थी। महाराष्ट्र में एक क्षेत्रीय हिंदूवादी पार्टी 'शिवसेना' अब भाजपा से 30 साल पुराना नाता तोड़कर कथित धर्म निरपेक्ष पार्टियों कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पा​र्टी (एनसीपी) के साथ सत्तारूढ़ है। यानि यह बात साफ है कि ​हिंदू मतों के विभाजन पर ही भाजपा की जीत संभव है। जिन सूबों में हिंदु मत किसी एक गठबंधन के पक्ष में एकजुट हुए है, वहां भाजपा को पराजय का सामना करना पड़ा है। झारखंड़ विधानसभा चुनाव के नतीज़े इसका जीवंंत उदाहरण है, इस सूबें में डबल इंजन की सरकार का नारा पूरी तरह फैल हो गया था। हालत यह ​थी कि सूबे के मुख्यमंत्री भी चुनाव हार गये थे। पीएम मोदी को अपने 'मिनी इंडिया' यानि दिल्ली में लगातार दूसरी बार हार का सामना करना पड़ा। बिहार में पीएम मोदी अपने 'समाजवादी' सहयोगी नीतीश कुमार के बूते बमुश्किल अपनी डबल इंजन की सत्ता में वापसी करवा सके हैं।

2022 में हो रहे पांच राज्यों के चुनावों से पहले पीएम मोदी के 'डबल इंजन की सरकार' के नारे के तहत पश्चिम बंगाल और असम विधानसभा चुनाव हुए। असम में भाजपा अपने बूते पर बहुमत हासिल नहीं कर सकी, जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा अपने बूते पर बहुमत का आंकड़ा हासिल करने में सफल रही थी। इस सूबे में भाजपा ने अपने पुराने सहयोगी असम गण परिषद से नाता तोड़कर दूसरे क्षेत्रीय दल के साथ चुनावी गठबंधन किया था। लिहाजा बमुश्किल इस नये सहयोगी के बूते पर सत्ता पर काबिज हो सकी। लेकिन भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को मुख्यमंत्री का चेहरा बदलना पड़ा। अब सूबे की बागड़ोर कांग्रेस की पृष्ठभूमि वाले एक सूबाई नेता को सौंपनी पड़ी है। वहीं पश्चिम बंगाल में हिंदू मतों के बहुमत की गोलबंदी सूबे की मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी की तरफ थी, लिहाजा ममता बेनर्जी खुद चुनाव हारने के बावजूद पीएम मोदी को चुनाव में हराने में सफल रहीं।

आज़ादी के अमृत उत्सव के दौरान हो रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में पीएम मोदी के 'डबल इंंजन की सरकार' के नारे के तहत भाजपा अपनी किस्मत आजमा रही है। इन चुनावों में पंजाब को छोड़कर अन्य चारों राज्य में भाजपा सत्तारूढ़ है। इनमें उत्तर प्रदेश पीएम मोदी का कर्मक्षेत्र है। लोकसभा का पहला चुनाव पीएम मोदी ने यूपी और अपने गृहराज्य गुजरात दोनों जगह से लड़ा था और दोनों ही जगह जीत दर्ज की थी। बाद में गुजरात संसदीय क्षेत्र से इस्तीफा देकर वाराणसी को अपना कर्मक्षेत्र चुना था। लिहाजा इस सूबे का चुनाव नतीज़ा इस बात पर मोहर लगा देगा कि प्रधानमंत्री के तौर पर सूबे का बहुमत उन्हें पसंद करता है या नहीं। मतलब इस सूबे के नतीज़े 2024 के लोकसभा चुनाव की तस्वीर साफ कर देंगे।

उत्तर प्रदेश में अगर हिंदू मतों में पिछले तीन चुनावों की तरह विभाजन रहा, तो भाजपा की जीत तय है। अगर हिंदू मतों के बहुमत की गोलबंदी 'पश्चिम बंगाल' की तरह पीएम मोदी को शिकस्त देने वाली किसी पार्टी की तरफ हुई, तो भाजपा बहुमत तो दूर वापस 2002 से लेकर 2012 वाली स्थिति में पहुंच जाएगी। यानि सौ का आंकड़ा पाना भी मुश्किल होगा। सूबे के जातिगत समीकरणों पर अगर निगाह डालें, तो इस चुनाव में भाजपा पिछले चुनाव की अपेक्षा कमजोर नज़र आ रही है। सूबे के जाति आधारित क्षेत्रीय दल जो पिछले चुनाव में भाजपा के साथ थे, वह समाजवादी पार्टी के साथ जुड़े है। यूपी में कांग्रेस और बसपा के अलावा औबेसी की एआईएमआईएम और आम आदमी पार्टी भी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। अगर मोदी विरोधी हिंदू मत इन पार्टियों में विभाजित हुए, तो निश्चित ही भाजपा को सत्ता पर काबिज होने से कोई नहीं रोक सकता।

वहीं दूसरी ओर पीएम मोदी के खिलाफ वाला मत अगर समाजवादी पार्टी के पक्ष में गोलबंद हुआ है, तो भाजपा का सत्ता से बेदखल होना तय है। फिलहाल जो परिदृश्य है, उसमें जातिगत समीकरण सपा गठबंधन के पक्ष में हैं और पीएम मोदी विरोधी मतों की पहली पसंद तमाम विरोधाभासों के बावजूद सपा गठबंधन ही होगा। पश्चिम बंगाल का वोटिंग ट्रेंड अगर यूपी में भी बरकरार रहा, तो भाजपा की हार तय है। बंगाल में भाजपा को उन क्षेत्रों में भी पराजय का सामना करना पड़ा है, जहां हिंदू बहुमत में 80 फीसदी के आसपास है। कमोबेश वैसा की वोटिंग ट्रेंड अभी तक यूपी में नज़र आ रहा है। शहरी क्षेत्र में कम मतदान भी भाजपा के खिलाफ माना जा रहा है।

पीएम मोदी ने पिछले एक साल से अपनी पूरी ताकत उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतने के लिए लगा दी है। तय कार्यक्रम के मुताबिक अंतिम दौर के चुनाव से पहले पीएम मोदी अपने संसदीय क्षेत्र में डेरा डालने वाले हैं। फिलहाल यह कहना तो मुश्किल है कि 10 मार्च को बहुमत का जादुई आंकड़ा ​कौन हासिल करेगा, लेकिन एक बात साफ है कि अगर पीएम मोदी यूपी की चुनावी जंग हार गये, तो अगली लड़ाई उनके लिए ज्यादा चुनौती भरी हो जाएगी, क्योंकि संसदीय लोकतंत्र का अगला पर्व गुजरात में होना है, जो कि पीएम मोदी का पैतृक सूबा है। जहां पीएम मोदी पिछले चुनाव में सौ का आंकड़ा भी हासिल नहीं कर सके थे।

 

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