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(आशु सक्सेना) भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 2013 में 'अच्छे दिन आने वाले हैं' नारा दिया था। इस नारे के साथ पार्टी के स्टार प्रचार और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र दामोदर मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत के संकल्प के साथ चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत की थी। समूचे देश में चुनावी रैलियों को संबोधित करते हुए मोदी गुजरात के विकास मॉडल का ज़िक्र करते हुए भ्रष्टाचार, मंहगाई, बेरोजगारी और कालेधन के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराते थे और कांग्रेस के 60 साल के कुशासन के खिलाफ 60 महीने का मौका देने की बात अपनी हर जनसभा में प्रमुखता से करते थे। मोदी अपने जोशीले भाषणों में पाकिस्तान से एक सिर के बदले 20 सिर लाने की बात कह कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को भी अंजाम देते थे। निसंदेह उस वक्त मोदी देश में सत्तारूढ़ कांग्रेस के खिलाफ आम लोगों खासकर युवाओं को आकर्षित करने में सफल हुए थे।

2014 के लोकसभा चुनाव से पहले मोदी लहर का अंदाजा मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव में पार्टी को जबरदस्त सफलता से लग गया था। 230 विधानसभा सीट वाले मध्य प्रदेश में भाजपा ने 165 सीट पर कब्जा किया था, जो कि पिछले चुनाव से 22 ज्यादा थी। वहीं 90 विधानसभा सीट वाले छत्तीसगढ़ में 49 सीट भाजपा जीती थी। भाजपा दोनों ही प्रदेश में लगातार तीसरी बार सत्ता पर काबिज हुई थी।

इतना ही नहीं राजस्थान में सत्तारूढ़ कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने में भी भाजपा सफल रही थी। 200 विधानसभा सीट वाले इस प्रदेश में भाजपा ने 163 सीटों पर विजय पताका लहराई थी। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले हुए पांच राज्यों खासकर भाजपा शासित मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा की हार ने मोदी विरोधी माहौल का संकेत दिया है।

यूं तो पीएम मोदी ने पिछले चार साल में हुए हर प्रदेश के चुनाव में पूरी ताकत झौंकी है। ज्यादातर राज्यों में वह कामयाब रहे हैं। लेकिन गुजरात के विधानसभा चुनाव के नतीजों से पीएम मोदी की लोकप्रियता में आई गिरावट का आभास हो गया था। अपने गृह राज्य में मोदी ने अपनी पूरी ताकत झौंकी, मतदान से पहले उन्होंने वहां डेरा डाल दिया। इसके बावजूद भाजपा बमुश्किल बहुमत हासिल करने में सफल हो सकी। तब भाजपा ने यह कह कर अपना बचाव किया था कि जो जीता वही सिकंदर।

दरअसल कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद देश के बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य की तस्वीर काफी हद तक साफ हो गई थी। कांग्रेस शासित कर्नाटक में सबसे बड़ा दल होने के बावजूद भाजपा सत्ता पर काबिज नही हो सकी। गौरतलब है कि इससे पहले गोवा में भाजपा ने क्षेत्रीय दलों के साथ हाथ मिलाकर कांग्रेस को सबसे बड़ा दल होने के बावजूद सत्ता का स्वाद नही चखने दिया था। लिहाजा कर्नाटक में कांग्रेस ने वही पैतरा चलते हुए क्षेत्रीय दल जेडीएस को मुख्यमंत्री की कुर्सी थमा दी। हांलाकि राज्यपाल ने सबसे बड़ा दल होने के नाते पहले भाजपा को सत्ता सौंपी थी। लेकिन सूबे के नये समीकरणों ने विधानसभा में विश्वास मत के दौरान भाजपा को सत्ता से बेदखल कर दिया।

बहरहाल, कर्नाटक विधानसभा चुनाव नतीजों से देश के बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य की तस्वीर उभरकर सामने आई। सूबे में त्रिकोने मुकाबले में मत विभाजन का फायदा भाजपा को मिला था। लेकिन मतदाताओं के रूझान से यह साफ नज़र आया कि वह अब कांग्रेस और भाजपा के विकल्प की तलाश में हैं। यहां यह ज़िक्र करना जरूरी है कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड़ की 100 सीट पर कांग्रेस और भाजपा का सीधा मुकाबला है। इन 6 राज्यों में क्षेत्रीय दल मजबूत स्थिति में नही हैं। जबकि देश के बाकी सभी राज्यों में क्षेत्रीय दलों की मजबूत पकड़ है।

ज़मीनी हकीकत यह है कि क्षेत्रीय दलों से गठबंधन के बगैर इन राज्यों में कांग्रेस और भाजपा के लिए अपना अस्तित्व बनाए रखना मुश्किल है। जिसका जीवंत मिसाल बिहार में देखने को मिली, जहां भाजपा को जदयू से चुनावी गठबंधन के लिए पिछले चुनाव में जीती हुई पांच सीट छोड़ने को मजबूर होना पड़ा है। इससे भाजपा के गिरे हुए ग्राफ का संकेत भी मिलता है। मौटे तौर पर कहा जा सकता है कि अगला लोकसभा चुनाव भाजपा बनाम क्षेत्रीय दल होना तय है।

देश के बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य ने केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा की दिक्कत बढ़ा दी है। पार्टी नेतृत्व के सामने सबसे बड़ी चुनौती चुनावी मुद्दा तय करना है। 2014 के चुनाव में मोदी लहर के साथ चुनावी मुद्दे भाजपा के पक्ष में थे। कांग्रेस के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर के साथ ही मंहगाई और भ्रष्टाचार सबसे अहम मुद्दा था। लेकिन अब स्थिति उसके उलट है।

पीएम मोदी अपनी चुनावी सभाओं में भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी लड़ाई की दुहाई दे रहे हैं। लेकिन राफेल रक्षा खरीद और सीबीआई बनाम सीबीआई जैसे विवादों ने उनकी इस मुहिम को कमजोर किया है। यही वजह है कि पार्टी के स्टार प्रचार पीएम मोदी की भाषा पूरी तरह बदल चुकी है। जिसकी झलक हाल में हुए विधानसभा चुनावों में देखने को मिली चुनाव प्रचार में पीएम मोदी ने मंदिर मुद्दे का हवा देनी दी। चुनावी रैलियों में मोदी ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के 'हिंदुत्व' पर जमकर निशाना साधा। पीएम मोदी ने राहुल गांधी पर तंज कसते हुए यहां तक कहा कि आजादी के बाद सरदार पटेल ने गुजरात के सोमनाथ के पुनरुद्धार का बीड़ा उठाया तो उनका सबसे ज्यादा विरोध आपके ही परिवार से बने देश के पहले प्रधानमंत्री ने किया था और आज आप में हमें हिंदुत्व का पाठ पढ़ाने आए हैं। पीएम मोदी यही नहीं रुके, उन्होंने कहा जब सोमनाथ मंदिर का पुनरुद्धार हो गया तो देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की सोमनाथ यात्रा का विरोध आपके ही परिवार के महारथी और पहले प्रधानमंत्री ने किया था। उन्होंने कहा कि देश पर चार पीढ़ियों तक शासन करने वालों को हजारों सालों तक जवाब देना होगा।

पीएम मोदी कांग्रेस को हिंदु विरोधी साबित करने में कितने सफल हुए हैं, यह तो 11 दिसंबर को पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद तय हो गया। लेकिन पीएम मोदी के चुनाव प्रचार अभियान को देख कर यह कहा जा सकता है कि उन्हें इस बात का एहसास हो गया है कि 'अच्छे दिन आने वाले हैं' नारा इस बार कारगर नही होगा। क्योंकि भ्रष्टाचार, मंहगाई और बेरोजगारी का मुद्दा पहले से ज्यादा विकराल हो चुका है। लिहाजा लोकसभा चुनाव से पहले पीएम मोदीnमंदिर मुद्दे को हवा देकर हिंदुओ को गोलबंद करने की कोशिश कर रहे हैं। हाल ही में भाजपा की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में भी उन्होंने राम मंदिर में देरी के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया है। तीन राज्यों के चुनाव नतीजों से साफ है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर काम नही करेगी। लिहाजा हिंदुत्व को हवा देकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ही सत्ता की वैेतरणी पार कराने का भाजपा के लिए एकमात्र रास्ता है। जिसकी संभावना फिलहाल नजर नही आ रही है।

देश के नये राजनीतिक परिदृश्य में जो तस्वीर उभर रही है। उसमें 1996 जैसे हालात बनने की ज्यादा संभावना है। त्रिशंकु लोकसभा में क्षेत्रीय दल सबसे बड़े गुट के तौर पर उभर सकते है। जबकि जबकि दल के तौर पर कांग्रेस और भाजपा पहले और दूसरे नंबर पर कहीं खड़े होंगे। ऐसे में भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस के सामने चुनाव के बाद बने क्षेत्रीय दलों के मोर्चे को समर्थन देने के अलावा अन्य कोई विकल्प नही होगा।

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